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प्रश्नोत्तर - प्रवचन- २१
तो मेरा जोर इस बात पर है कि धर्म का त्याग मत करो। धर्म को बिहाद भोग बनाओ । त्याग आएगा, वह सीधा अपने आप होगा । अगर आपको आगे की सीढ़ी पर पैर रखना है तो पिछली सीढ़ी छूटेगी । लेकिन इस पर जोर मत दो कि पोछे की सीढ़ी छोड़नी है । जोर इस पर दो कि आगे की सीढ़ी पानी है ।
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प्रश्न : जैसे त्याग शब्द ने गलती की अब तक, वैसे आपका भोग शब्द भी गलती कर सकता है ?
उत्तर : बिल्कुल कर सकता है । सब शब्द गलती करते हैं । शब्द कोई हो इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा । सब शब्द गलती कर सकते हैं क्योंकि अन्ततः शब्द गलती नहीं करते, अन्ततः लोग गलती करते हैं। लेकिन त्याग शब्द व्यर्थ हो गया है । और त्याग के विपरीत कोई शब्द नहीं है सिवाय भोग के । लेकिन जो मैं कह रहा हूँ अगर उसे ठीक से समझा जाए तो मेरा भोग त्याग के विपरीत नहीं है । मेरा भोग त्याग में से ही है क्योंकि मैं कह रहा हूँ कि दूसरी सीढ़ीचर पैर रखना है तो पहली सीढ़ी छोड़नी ही पड़ेगी । लेकिन मेरा जोर दूसरी सीढ़ी पर पैर रखने पर है । मेरा जोर आगे बढ़ने पर है । मेरा जोर पिछली सोढ़ी छोड़ने पर नहीं है। जोर इस बात पर है कि अगली सीढ़ी पाओ। इसे मैं भोग कह रहा है । पिछला जोर इस बात पर था कि जिस सीढ़ी पर खड़े हो उसे छोड़ो। वह जोर छोड़ने पर था । पिछली सीढ़ी छोड़ो-इसके लिए बहुत कम लोगों को राजी किया जा सकता है क्योंकि जिस तरह हम खड़े हैं, उसे भी छोड़ दें यह कठिन है। हीं, जो उस सीढ़ी पर अत्यन्त दुःख में है, शायद वह छोड़ने को राजी हो जाए। वह कहे कि इससे बुरा तो कुछ नहीं हो सकता, यह तो छोड़ ही देते हैं फिर जो होगा, होगा ।
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रुग्ण चित्त त्याग की भाषा को समझ लेता है, स्वस्थ चित्त त्याग की भाषा को नहीं समझ सकता। वृद्ध चित्त त्याग की भाषा को समझ लेगा, युवा चित्त त्याग की भाषा को नहीं समझ सकेगा । इसलिए मैं कह रहा हूँ कि पिछले पाँच हजार वर्षों में धर्म ने जो भी रूपरेखा ली है, वह रुग्ण, विक्षिप्त, वृद्ध, बीमार — इस तरह के लोगों को आकृष्ट करने का कारण बनी । 'त्याग' शब्द पर जोर देने का परिणाम यह हुआ कि जो स्वस्थ जीवन्त, जीने के लिए लालायित है वह उस ओर नहीं गया है। उसने कहा : जब जीवन की लालसा चली जाएगी, तब देखेंगे, अभी तो हमें जीना है ।
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