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महावीर : मेरी दृष्टि में
छोड़ना कभी भी चित्त के लिए आकर्षण नहीं बन सकता । असहज सहज
नहीं है । पाना ही चित्त के लिए सहज आकर्षण है। तो अगर वह हमारे स्याल में हो जाए, अगर वह साफ हो जाए तो महावीर ने घर छोड़ा - इस भाषा को हम नहीं बोलेंगे। महावीर ने घर छोड़ा यह तथ्य है। तथ्य इतना है देखें यह हम पर
कि महावीर घर में नहीं रहे। लेकिन इसको हम किस तरह से निर्भर है यह महावीर पर निर्भर नहीं है अब । और मेरी दृष्टि यह है कि महावीर घर छोड़कर जितने आनन्दित दिखाई पड़ते हैं, जितने प्रसन्न दिखाई पड़ते हैं, उनके जीवन में जैसी सुगंध मालूम पड़ती है, वह खबर देती है कि घर छोड़ो नहीं, बड़ा घर मिल गया है। अगर घर ही छूटता और बाहर रह गए होते सड़क पर तो यह हालत नहीं होने वाली थी। बड़ा घर मिल गया, महल मिल गया, झोपड़ा ही छूटा है । इसलिए जो छूटा है, उसकी बात ही नहीं । जो मिल गया है, वह चारों ओर से उसको आनन्द से भर रहा है ।
वह मिला नहीं ।
लेकिन महावीर के पीछे चलने वाले साधु को देखें । ऐसा लगता है कि वह सड़क पर खड़ा है, जो था वह खो दिया और जो मिलना था तो एक अधूरे में अटक गया है। वह एक कष्ट में जी रहा है, वह एक परेशानी में जी रहा है । और हमें जरा सोच लेना चाहिए कि हम किसी को परेशानी में जीते देखकर आदर क्यों देते हैं ?
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असल में यह भी बड़ी गहरी हिंसा का भाव है। एक आदमी जब परेशानी में होता है तो हम उसको आदर देते हैं । और परेशानी अगर खुद ही स्वेच्छा से ली हैं तब हम और आदर देते हैं । लेकिन यह हमारा प्रावर भी रुग्ण है। असल में हम दूसरे को दुःख देना चाहते हैं, भीतर से हमारे चित्त में यही होता है कि हम किसको कितना दुःख दे दें। और जब कोई ऐसा आदमी मिल जाता है जो दुःख खुद ही वरण करता है तो हम बड़े आदर से भर जाते हैं कि यह आदमी बिल्कुल ठीक है । यह हमारे भीतर की किसी बहुत गहरी आर्काचा को तृप्त करता है । अगर एक आदमी सुखी हो जाए तो आप सुखी नहीं होते । एक आदमी ज्यादा से ज्यादा सुख में जाने लगे तो आप दुःख में जाने लगते हैं ।
किसी का सुख में जाना आपका दुःख में जाना बन जाता है लेकिन किसी का दुःख में जाना आपका दुःख में जाना नहीं बनता । हालांकि कभी हो जाता है कि कोई आदमी दुःख में पड़ा हो तो आप बहुत सहानुभूति प्रकट करते हैं लेकिन अगर थोड़ा भीतर झांकेंगे तो आप पाएंगे कि सहानुभूति में भी रस. आ रहा है । हो सकता है कोई आदमी बड़ा सुखी हो गया है, या बड़े मकान में जीने