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महावीर : मेरी पृष्टि में
हमें कोई स्थान नहीं है। मेरे पैदा होने में बाज तक, इस समय के विन्दु तक, विश्व की जो भी स्थिति थी, वह सबकी सब जिम्मेदार है और अगर मुझे फिर से पैदा करना हो तो ठीक इतनी ही विश्व की स्थिति पूरी की पूरी पुनरुक्त हो तोही में पैदा हो सकता है, नहीं तो पैदा नहीं हो सकता। मेरे पिता चाहिए, मेरी मां चाहिए। वे भी उन्हीं पिताओं और माताओं से पैदा होने चाहिए जिनसे बे पैदा हुए।
इस तरह हम पीछे लोटते चले जाएंगे तो हम पाएंगे कि पूरी विश्व की स्थिति एक छोटे से व्यक्ति के पैदा होने में संयुक्त है, जुड़ी हुई है। और अगर इसमें एक इंच भी इधर-उपर हो जाए तो मैं पैदा नहीं हो सकूँगा। जो भी पैदा होगा, वह कोई दूसरा होगा। और अगर मुझे पैदा करना हो तो इतने जगत् का पूरा का पूरा अतीत फिर से पुनरुक्त हो तभी मैं पैदा हो सकता है। इसकी कोई सम्भावना नहीं दिखाई पड़ती। यह कैसे पुनरुक्त होगा? तो एक व्यक्ति को दुबारा पैदा नहीं किया जा सकता । और इसलिए एक व्यक्ति के अनुभव को, उसकी अभिव्यक्ति को भी दुवारा पैदा नहीं किया जा सकता। इस अर्थ में अगर हम देखते चले तो सत्य का अनुभव व्यक्तिगत है । वह एकदम एक ही अनुभव प्रत्येक को भिन्न-भिन्न होता है।
रवीन्द्रनाप ने लिखा है कि एक बूढ़ा आदमी था जो मेरे पड़ोस में रहता पा। पिता के दोस्तों में एक था जो अक्सर उनके पास बावा और मुझे बहुत परेशान करता। जब मैं आत्मा, परमात्मा की कविताएं लिखता तो वह खूब हेसता और हाथ पकड़ कर हिला देता कि क्या ईश्वर का अनुभव हुआ है, क्या ईश्वर को देखा है और इतना खिल-खिल कर हंसता कि उस आदमी से पर पैदा हो जाता। बोर वह कहीं सड़क पर मिल जाता तो बचकर निकल जाता क्योंकि वह वहीं पकड़ लेता । अनुभव हुआ है ईश्वर का ? ईश्वर को देखा है ? और मेरी हिम्मत न पड़ती कहने की कि सच में अनुभव क्या हुआ है। कविताएं लिख रहा था । वह आदमी बहुत ज्यादा परेशान करने लगा था।
एक बार वर्षा के दिन में घर के बाहर समुद्र की तरफ गया। सूरज निकला है। सुबह का वक्त है । समुद्र के जल पर भी सूरज का प्रतिविम्ब बना है। रास्ते के किनारे जो गन्दे पानी के गड्ढ़े बने है उनमें भी सूरज का प्रतिबिम्ब बना है। लोटते वक्त मुझे अचानक ऐसा लगा कि सागर का जो प्रतिविम्ब है
और इस गन्दे गड्ढ़े में वो प्रतिविम्ब है इन दोनों में कोई भेद नहीं है । मुझे लगा कि प्रतिविम्ब को गंवा गळा कैसे छू सकता है? प्रतिविम्ब कैसे गंदा