Book Title: Mahavira Meri Drushti me
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Jivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai

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Page 661
________________ महावीर : मेरी दृष्टि में C मुनि ने कहा कि सब देकर मार डाला । उसने अपनी पत्नी को मकान के भीतर करके आग लगा ही । फिर पछताया है, दुःखी हुआ है। गाँव में एक मुनि आए हुए हैं। वह उनके पास गया और उनसे कहा कि मैं अपने क्रोध को किस प्रकार मिटाऊँ । मुझे कुछ रास्ता बताएं कि मैं इस क्रोध से मुक्त हो जाऊँ । त्याग कर दो, संम्यासी हो जाओ, सब छोड़ दो तभी क्रोध जाएगा । मुनि मन थे। उस व्यक्ति ने भी कपड़े फेंक दिएं। वह वही नग्न खड़ा हो गया । मुनि ने कहा : अब तक मैंने बहुत लोग देखे संन्यास माँगने वाले लेकिन तुम जैसा तेजस्वी कोई भी नहीं दिखा। इतनी तीव्रता से तुमचे वस्त्र फेंक दिए । लेकिन मुनि भी न समझ पाए कि जितनी तीव्रता से कुएं में धक्का दे सकता है, वह उतनी ही तीव्रता से वस्त्र भी फेंक सकता है। वह क्रोध का ही रूप है । असल में क्रोष बहुत रूपों में प्लकट होता है । क्रोष संन्यास भी लेता है । इसलिए संन्यासियों में निन्यानवें प्रतिशत क्रोधी इकट्ठे मिल जाते हैं । उनके कारण है । ७७० में उसने वस्त्र फेंक दिए हैं, वह नग्न हो गया है, वह संन्यासी हो गया है । दूसरे साधक पीछे पड़ गए हैं। उससे साधना में कोई आगे नहीं निकल सकता । क्रोम किसी को भी आगे नहीं निकलने देता । क्रोध ही इसी बात का है कि कोई मुझ से आगे न हो जाएं। वह साधना में भी उतना ही क्रोधी है । लेकिन साधना की खबर फैलने लगी । जब दूसरे छाया में बैठे रहते हैं वह धूप खड़ा रहता है । जब दूसरे भोजन करते हैं वह उपवास करता है । जब दूसरे शीत से बचते हैं वह शीत झेलता है। उसके महातपस्वी होने की खबर गाँवगाँव में फैल गई है। उसके क्रोध ने बहुत अद्भुत रूप ले लिया है। कोई नहीं पहचानता, वह खुद भी नहीं पहचानता कि यह क्रोध ही है जो नये-नये रूप ले रहा है । फिर वह देश की राजधानी में भाया। दूर-दूर से लोग उसे देखने आते है। देश की राजधानी में उसका एक मित्र है बचपन का । वह बड़ा हैरान है कि यह क्रोषी व्यक्ति संन्यासी कैसे हो गया हालांकि नियम यही है । वह देखने गया उसे । संम्यासी मंच पर बैठा है। वह मित्र सामने बैठ गया । संम्बासी की आंखों से मित्र को लगा है कि वह पहचान तो गया । लेकिन मंच पर कोई भी बैठ जाए फिर वह नीचे मंच वालों को कैसे पहचाने ? पहचानना बहुत मुश्किल है। फिर वह मंच कोई भी हो। चाहे वह राजनीतिक हो, चाहे गुरु की हो । मित्र ने पूछा, आपका नाम ? संन्यासी ने कहा शान्तिनाथ । फिर परमात्मा

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