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प्रश्नोत्तरप्रवचन-२५
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एकाग्र चित्त का मतलब यह हुआ कि जिस विन्दु को हम देख रहे है, बस सारा ध्यान वहीं हो गया है, सिकुड़ कर एक जगह आ गया है, शेष के प्रति बन्द हो गया है, शेष के प्रति सो गया है। तो एकाग्रता एक विन्दु के प्रति जागरण और शेष सब बिन्दुओं के प्रति सो माना है। लेकिन चंचलता और एकाग्रता में थोड़ा फर्क है । एकाग्रता का बिन्दु बदलता नहीं, चंचलता का विन्दु बदलता चला जाता है । फर्क नहीं है दोनों में । एकाग्रता में एक बिन्दु रह गया है । शेष सब सो गया है । सब तरह मूर्छ है । बस एक बिन्दु की तरफ जागृति रह गई है। चंचलता में भी यह है लेकिन फर्क इतना है कि चंचलता में एक बिन्दु तेजी से बदलता रहता है, अभी यह है, अभी वह है, और शेष के प्रति सोया रहता है।
ध्यान का मतलब है ऐसा कोई बिन्दु नहीं है जिसके प्रति चित्त सोया हुआ है। तो ध्यान एकाग्रता नहीं है, ध्यान चंचलता भी नहीं है। ध्यान बस जागरण है।
इसे और गहराई में समझें। अगर हम किसी के प्रति जागते हैं तो हम समग्र के प्रति नहीं जाग सकते । अगर तुम मेरी बात सुन रहे हो तो शेष सारी आवाजें जो इस जगत् में चारों ओर हो रही है, तुम्हें सुनाई नहीं पड़ेंगी । मेरी तरफ एकाग्रता हो जाएगी तो बाहर कोई पक्षी चिल्लाया, कोई कुत्ता भोंका, कोई आदमी निकला, उसका तुम्हें पता नहीं चलेगा । यह एकापता हुई । नागरूकता का अर्थ यह है कि एकसाय जो भी हो रहा है, वह सब पता चल रहा है। हम किसी एक चीज के प्रति जागे हुए नहीं है। समस्त जो हो रहा है उसके प्रति जागे हुए हैं । मेरी बात भी सुनाई पड़ रही है, कोमा आवाज लगा रहा है वह भी सुनाई पड़ रहा है, कुत्ता भोंका वह भी सुनाई पड़ रहा है । और यह सब अलग-अलग नहीं क्योंकि काल में ये सभी एक साथ घट रहे हैं । यानी अभी जब हम बैठे हैं तो हजार घटनाएं घट रही है । इन सब के प्रति एक साप जागाहमा होने को महावीर अमूर्छा कहेंगे, जागरण कहेंगे । और ऐसा जागरण इतना बड़ा हो जाए कि न केवल बाहर की आवाज सुनाई पड़े, बल्कि अपने श्वास की धड़कन भी सुनाई पड़े, अपनी आंख के पलक का हिलना भी पता चल रहा हो, भीतर चलते विचार भी पता चल रहे हों, जो भी हो रहा है इस जग में मेरी चेतना के वर्पण पर प्रतिफलित हो रहा है वह सब मुझे पता चल रहा हो, अगर वह समग्र मुझे पता चल रहा है-भीतर से लेकर बाहर तक वो फोकस टूट गया, तब जागरण रह गया । यह पूर्ण स्वभाव की उपलब्धि हुई। .