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प्रश्नोतर अपवन-२
तो बरचे नियमित रूप से माने के पास जाते, लकड़ी को उठाकर देखते , और रख देते । पिता का नियम रोज पालन करते रहे। फिर वे.बड़े हुए। फिर उन्होंने बहुत कमाई को, फिर उन्होंने नया मकान बनाया तो सोचा कि इतनी छोटी सी लकड़ी भी क्या रखनी ? अब उन्हें कुछ भी पता न था कि वह लकड़ी किसलिए पी तो उन्होंने एक सुन्दर कारीगर से एक बड़ा लकड़ी का डंडा बनवाया, उस पर खुदाई करवाई। और उसे आले में उन्होंने उसे स्थापित कर दिया । बड़ा आला बनवाया, अब रोज उठाने की बात न रही । उनके भी बच्चे पैदा हो गए। उन बच्चों ने भी अपने पिता को बड़े आदर-भाव से उस बाले के पास जाते देखा था। फिर उनके पिता भी चल बसे । फिर बच्चे वहाँ जाकर रोज नमस्कार कर लेते क्योंकि उनके पिता उस आले के पास भोजन के बाद जरूर हो जाते थे। यह नियमित कृत्य हो गया था। परम्परा बन गई थी। अब इसमें कुछ भी अर्थ न रह गया था। एक जड़ लीक पड़ जाती है जो पीछे चलती है।
महावीर के समय में विचार की लोक छूट गई थी। आचार्य थे, साधु थे लेकिन मृत पी धारा । मृतधारा कितने समय तक चल सकती है ? और मृतधारा जिद्दी हो जाती है। महावीर ने नयो विचारदृष्टि को जन्म दिया, नयी हवा फैली । नया सूरज निकला। लेकिन पुरानी लोक पर चलने वाले लोगों ने नये को स्वीकार नहीं किया । वह अपनी लीक को बांधे हुए चलते गए । ऐसा भी हुमा कि महावीर ने जो कहा था वह भी चला और जो पिछली परम्परा थी, वह भी चलती रही। एक मृतधारा की तरह उसको थोड़ी सी रूपरेखा भी चलती रही।
यह प्रश्न सार्थक दिखाई पड़ता है लेकिन सार्थक नहीं है । परम्परा मात्र होने से कोई जीवित नहीं होता। बल्लि उलटी हो बात है। जब कोई चीज परम्परा बनती है तब मर गई होती है। और आचार्यों के होने से जरूरी नहीं है कि वे किसी जीवित परम्परा के वंशधर हों। सच तो यह है कि उनका होना इसी बात की खबर है कि अब कोई जीवित अनुभवी व्यक्ति नहीं रह गया जो जानता हो। इसलिए जो जाना गया था उसको जानने वाले लोग गुरु का काम निवाहने लगते है। साधु मी है लेकिन न तो साधु से कुछ होता है, न शिक्षकों से कुछ होता है, न गुरुओं से कुछ होता है जब तक कि जीवित अनुभव को लिप हुए, कोई व्यक्ति न हो। और वे व्यक्ति हो गए थे। वे व्यक्ति न रहे थे। इसलिए महावीर के मार्ग-वन में इस बात से कोई अवरोध नहीं पड़ता है