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महावीर : मेरी दृष्टि में
चार्वाक कह रहा है कि बस इतना ही जीवन है । खाओ, पियो । बस इतना ही जीवन है । महावीर कह रहे हैं कि दोनों बातें सत्य हैं ।
प्रश्न : यह तो आप दोनों बातों को उल्टा कह रहे हैं ?
उत्तर : नहीं ।
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प्रश्न: आप कह रहे हैं कि चुनने योग्य हो तो चार्वाक को नहीं, शंकर को चुना जाए।
उत्तर : हाँ, हाँ ! बिल्कुल ही ।
प्रश्न : तो क्या शंकर त्याग की ओर गया ?
उत्तर : नहीं। मैं कहता हूँ कि वह ज्यादा गहरे योग की ओर गया क्योंकि भीतर में जितना योग है, उतना बाहर नहीं है ।
प्रश्न: क्या चार्वाक भोग की ओर गया ?
उत्तर : नहीं, यह मैं नहीं कह रहा हूँ। ऐसी भूल हो जाती है, मेरी निरन्तर बातों से । साधारणतः हम चार्वाक को भोगी कहेंगे । साधारणतः मैं चार्वाक को त्यागी कहूँगा । मैं कहूँगा कि वह, जो अन्तर्योग है, बड़ा योग है उसको छोड़ रहा है । चार्वाक कह रहा है कि घी भी ऋण लेकर पीना पड़े तो पियो । ऋण की चिन्ता मत करो । बस घी मिलना चाहिए। तो वह घी पर ही जी रहा है । लेकिन बहुत बाहर जी रहा है। खाने-पीने तक उसका योग है । लेकिन एक अन्तर्योग भी है । उस ओर कोई दृष्टि नहीं है । उस ओर कोई ध्यान नहीं है । शंकर भी बड़े योगी हैं। क्योंकि शंकर ज्यादा गहरे योग में जा रहे हैं । और महावीर चूंकि प्रत्येक चीज में एक सन्तुलन और समता का ध्यान रखते हैं, वे कहेंगे चार्वाक को कि तुम बिल्कुल ठीक कहते हो कि बाहर सत्य है ! लेकिन 'अगर तुम भीतर जाओगे तो तुम पाओगे कि वहाँ भी सत्य है । शंकर को भी यही कहेंगे कि तुम बिल्कुल ही ठीक कहते हो, एकदम ठीक हो बात है कि भीतर सत्य है । लेकिन तुम्हारे आँख बंद करने से बाहर असत्य नहीं हो जाता। सिर्फ इतना ही है कि तुम्हें पता चलना बंद हो जाएगा ।
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पूरा जीवन बाहर और भीतर से मिलकर बना है । एक को तोड़ देना दूसरे के हित में अधूरा है । इस दृष्टि में महावीर अनेकांगी है । और प्रत्येक पहलू पर क्या-क्या विरोध है वह दोनों में से सत्य को निचोड़ लेना चाहते हैं ।