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महावीर : मेरी दृष्टि में
दृष्टिसुक्त, दृष्टिशून्य होकर बड़ा हो गया हूँ तो ही मैं पूर्ण को जान सकता हूँ क्योंकि तब पूर्ण को मेरे तक आने में कोई बाधा नहीं है ।
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प्रश्न : दर्शन और अनुभूति एक बात है ?
उत्तर : हाँ, बिल्कुल ही एक बात है ।
प्रश्न : महावीर ने घर में ही रहकर साधना क्यों नहीं की ? बाहर जाने को क्या आवश्यकता थी ?
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उतर: ये सवाल भी हमें उठते हैं । ये प्रश्न भी महत्त्वपूर्ण हैं। क्योंकि घर और बाहर हमें दो विरोधी चीजें मालूम पड़ती हैं । हमें ऐसा लगता है कि घर एक अलग दुनिया है, और बाहर एक अलग दुनिया है । हमें कभी भी ख्याल नहीं आता कि घर और बाहर, एक ही विराट् के दो हिस्से हैं । एक स्वस भीतर गई तो मैं कहता हूँ कि भीतर गई । और एक क्षण भीतर रही नहीं कि बाहर हो गई । जो एक क्षण पहले बाहर थी वह एक क्षण बाद भोतर हो जाती है । जो एक क्षण भीतर थी वह एक क्षण बाद बाहर हो जाती है । क्या बाहर है और क्या भीतर है ? कौन सा घर है, ओर कौन सा घर से. अतिरिक्त अन्यथा है ?
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हमारी जो दृष्टि है वह हमने बड़ी सीमित बना रखी है। घर से हमारा मतलब है जो अपना है और बाहर से हमारा मतलब है जो अपना नहीं है । लेकिन क्या ऐसा नहीं हो सकता कि किसी के लिए कुछ भी ऐसा न हो जो अपना नहीं है । और अगर किसी व्यक्ति के लिए ऐसा हो जाए कि कुछ भी ऐसा नहीं है जो अपना नहीं है तो घर और बाहर का सवाल समाप्त हो गया । तब घर ही रह गया, बाहर कुछ भी न रहा । या उल्टा भी कह सकते हैं कि बाहर ही रह गया, घर कुछ भी न रहा। एक बात तय है कि जिस व्यक्ति को दिखाई पड़ना शुरू होगा उसे बाहर और भीतर की जो भेव रेखा है, वह मिट जाएगी। वही बाहर है, वही भीतर है।
ये हवाएं हमारे घर के भीतर भर गई हैं तो हम कह रहे हैं घर के भीतर । और हमें ख्याल नहीं है कि प्रतिपल ये हवाएँ बाहर हुई चली जाती हैं और प्रतिपल जो बाहर थीं वे भीतर चली आती है। घर के भीतर हवाएं कुछ अलग हैं घर के बाहर से ? यह जो प्रकाश घर में आ गया है वह कुछ अलग है उस प्रकाश से जो बाहर है। हाँ, इतना ही फर्क है कि दिवालों ने इसकी प्रखरता छीन ली है। दीवालों ने इसे उतना ताजा और जीवन्त नहीं रहने दिया है