________________
महावीर : मेरी दृष्टि में
कि वह भाग जाए क्योंकि वहाँ भी वह संग खोज लेगा । वहाँ भी वह साथ खोज लेगा । सवाल गहरे में यह है कि कोई व्यक्ति परिधि से भीतर जाने का उपाय करे तो उसे दिखाई पड़ेगा कि परिधि के सम्बन्धों की जो आकांक्षा है, वह छोड़ देनी पड़ेगी । इससे यह सवाल नहीं उठता है कि वह सम्बन्ध तोड़ देगा । सम्बन्ध रह सकते हैं, लेकिन अब उनको कोई आकांक्षा उनके भीतर नहीं रह गई । अब वह परिधि के खेल हैं, और जो लोग परिधि पर जी रहे हैं, वह व्यक्ति उनके लिए परिधि पर खड़ा हुआ भी मालूम पड़ेगा, लेकिन अपने आप में वह अकेला हो गया है, और अपने भीतर जाना शुरू कर दिया है ।
महावीर को जो अन्तर्यात्रा है, उसमें चूंकि कोई संगी साथी नहीं हो सकता इसलिए वह सब संग को अस्वीकार कर देते हैं । लेकिन जैसे हो कोई सब संग अस्वीकार करता है जीवन की सारी शक्तियाँ, उसका साथी होना चाहती हैं । जो अकेला है, जो असहाय है, जो असुरक्षित है, जीवन उसके लिए सुरक्षा भी बनता है, सहायता भी बनता है । जीवन के आन्तरिक नियम ऐसे हैं कि ऊपर पूर्णतया कोई असहाय है तो सारा जीवन उसका सहायक बन जाता है । यह जीवन के भीतरी नियम हैं। यह नियम वैसे ही हैं जैसे कि चुम्बक लोहे को खींच लेता है और हम कभी नहीं पूछते कि क्यों खींच लेता है । हम कहते हैं कि यह नियम है । चुम्बक में ऐसी शक्ति है कि वह लोहे को खींच लेता है । यह भी नियम है कि जो व्यक्ति भीतर में पूर्णतः असहाय खड़ा हो गया, सारे जगत् की सहायता उसकी तरफ चुम्बक की तरह खिंचने लगती है । क्यों खिचने लगती है यह सवाल नहीं, यह नियम है । नियम का मतलब यह है कि असहाय होते ही, कोई व्यक्ति बेसहारे नहीं रह जाता, सब सहारे उसके हो जाते हैं । और जब तक कोई अपना सहारा खोज रहा है तब तक वह गहरे अर्थों में असहाय होता है । तो हम ऐसा कुछ करें जिसमें सुरक्षा रहे, असुरक्षित न हो जाएँ क्योंकि असुरक्षित चित्त को ही परमात्मा की सुरक्षा उपलब्ध होती है। जो खुद हो अपनी सुरक्षा कर लेता है, उसे परमात्मा को कोई सुरक्षा उपलब्ध नहीं होतो क्योंकि वह परमात्मा के लिए तो मौका ही नहीं दे रहा है । वह तो अपना इन्तजाम खुद कर रहा है
५६०
एक कहानी है कि कृष्ण भोजन को बैठे हैं, दो चार कोर लिए हैं और भागे हैं थाली छोड़ कर । रुक्मिणी ने उनसे पूछा : आपको क्या हो गया है ? कहाँ जा रहे हैं ? लेकिन उन्होंने सुना नहीं । वह द्वार जैसे कहीं आग लग गई हो । रुक्मिणी भी उठी है,
पर चले गए हैं दौड़ कर उनके दो चार कदम पीछे