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महावीर : मेरी दृष्टि में
को नमस्कार मत करना। क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि आदर उसके सोए हुए होने को और बढ़ाए । लगता तो ऐसा है लेकिन महावीर के पीछे आने वाले साधुओं ने उसका दूसरा ही मतलब निकाला है। उन्होंने इसे बिल्कुल अहंकार की प्रतिष्ठा बना ली है । यानी वे कुछ ऊंचे हैं, अहंकार में प्रतिष्ठित हैं, सम्मानित हैं, पूज्य हैं, दूसरे को उनकी पूजा करनी है। लेकिन बड़े मजे की बात है कि महावीर ने यह कहीं नहीं कहा कि साधु गृहस्थ से पूजा ले, संन्यासी गृहस्थ से विनय मांगे। इतना ही कहा है कि गृहस्थ को अगृही विनय न दे। क्योंकि गृहस्थ से मतलब ही इतना है कि जो अज्ञान में घिरा हुआ खड़ा है इसके अज्ञान की तृप्ति को जगह-जगह से गिराना जरूरी है। इसके अहंकार को बढ़ाना उचित नहीं है ।
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अहंकार न बढ़ जाए गृही का इसलिए महावीर कहते हैं कि साधु उसे विनय न दे। लेकिन उन्हें पता नहीं था शायद कि उनका साधु ही इसको अहंकार का पोषण बना लेगा और साधु ही इस अहंकार में जीने लगेगा कि उसे पूजा मिलनी चाहिए और वह अविनीत हो जाएगा। महावीर की कल्पना भी नहीं है कि साधु अविनीत हो सकता है, इसलिए वह कहते हैं कि साधुता का तो मतलब ही है पूर्ण विनम्रता में जीना चौबीस घंटे । यानी कोई न भी हो पास में तो भी विनम्रता में ही जीना। वह तो साधुता का मतलब ही है । क्योंकि साधुता का मतलब है सरलता और सरलता अविनम्र कैसे होगी ?
महावीर को यह कल्पना हो नहीं कि साधु भी अविनम्र हो सकता है । हाँ, गृहस्थ अविनम्र हो सकता है क्योंकि वह अहंकार में जीता है, वहीं उसका घर है । उसे विनय मत देना । लेकिन भूल हो गई । मालूम होता है कि भूल ऐसी हो गई कि उन्हें पता नहीं कि साधु भी एक प्रकार का गृहस्थ हो सकता है । इसका कोई ख्याल नहीं है उन्हें कि साधु भी बदला हुआ गृहस्थ हो सकता है । सिर्फ कपड़े बदल कर साधु हो सकता है और उसकी चित्तवृत्तियों को सारी माँग वही हो सकती है जो गृहस्थ की है। असल बात यह है कि जिसे हम गृहस्थ कह रहे हैं वह तो गृहस्थ है लेकिन जिसे हम साधु कह रहे हैं, वह साधु नहीं है।
जापान के एक सम्राट ने एक बार अपने वजीरों को कहा कि तुम जाकर पता लगाओ कि अगर कहीं कोई सांधु हो तो मैं उससे मिलना चाहता हूँ । वजीरों ने कहा कि यह बहुत मुश्किल काम है । सम्राट् ने कहा मुश्किल ? मैं