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महावीर : मेरी दृष्टि में
.. पहली बात यह है कि जब हम दूसरे का साथ मांगते हैं तभी हम कमजोर हो जाते हैं । असल में साथ माँगना हो कमजोरी है। वह हमारा कमजोर चित ही है जो कहता है कि साथ चाहिए। और कमजोर चित्त क्या कर पाएगा जो पहले से ही साय माँगने लगा। तो पहली जरूरत यह है कि हम साथ की कमजोरी छोड़ दें और पूरी तरह जो अकेला हो जाता है, जिसके चित्त से संग की मांग, सहयोग की इच्छा मिट जाती है सारा जगत् उसे संग देने को उत्सुक हो जाता है।
कहानी का दूसरा मतलब है यह कि खुद देवता भी उत्सुक हैं उस व्यक्ति को सहारा देने के लिए जो अकेला खड़ा हो गया। दूसरी ओर जो साथ मांगता है उसे साथ मिना नहीं-नाममात्र को लोग माथी हो जाते है। असल में मांग से कोई साथ ना ही नहीं सकता। लेकिन जो मांगता हो नहीं साथ, जो मिले हुए साथ को भी इन्कार कर देता है, उसके लिए सारे जगत् की शुभ शक्तियाँ आतुर हो जाती हैं साथ देने को। कहानी तो काल्पनिक है, पुराण है, गाथा है किन्तु प्रयोष कथा है। वह कहती है कि जब कोई व्यक्ति नितान्त अकेला खड़ा हो जाता है तो जगत् को सारी शुभ शक्ति.याँ उसको साथ देने को आतुर हो जाती है। लेकिन अगर ऐसा व्यक्ति उनका साथ लेने को भी तैयार हो जाए तो वह भटक जाता है थ्योंकि उसकी यह साथ लेने की बात इस तथ्य की खबर है कि मन के किसी अंधेरे कोने में, संग और साथ की इच्छा शेप रह गई है । इसलिए निमंत्रण तो मिला है महावीर को क हम साथ देते हैं लेकिन वह कहते है कि हम साथ लेते नहीं। __ तो जब जगत् को सारी शुभ शक्तियां भी साथ देने को तत्पर हों तब भी वैसा आदमी अकेला होने की हिम्मत कायम रखता है। यह बड़ा उप्रेरणा है कि भीतर कहीं छिपा हो कोई भाव, साथी का, संगी का, समाज का, तो वह 'प्रकट हो जाए । महावीर उसे भी इन्कार कर देते हैं । इस भांति वे अकेले खड़े हो जाते हैं। और यह इतनी बड़ी घटना है मनोजगत् में प्रतिमा पूर्णतया अकेले खड़े हो जाना, जिसके मन के किसी भी परत पर किसी तरह के साथ को कोई आकांक्षा नहीं रह गई। यह व्यक्ति एक अर्थ में अद्त रूप से मुक्त हो गया है क्योंकि जो हमारी साथ की इच्छा हमें बाँधती है, गहरे में वही हमारा बन्धन है। समाज को छोड़कर भागना बहुत आसान है । लेकिन समाज की इच्छा से मुक्त हो जाना बहुत कठिन है। आदमी अकेला नहीं होना चाहता। कोई भी कारण खोज कर वह किसी के साथ होना चाहता है। अकेले में बहुत