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प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१८
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यह भी पता नहीं है कि वासना हमें चौबीस घंटे खींचे हुए हैं क्योंकि हम उसी में पैदा होते हैं। पैदा हुआ बच्चा कि वासना की दौड़ शुरू हुई। वासना ने उसे पकड़ना शुरू किया। उसे यह चाहिए, उसे वह चाहिए । उसे यह बनाना है, उसे वह बनाना है-दौड़ शुरू हो गयी और चक्र जोर से घूमने लगा।
इस चक्र के बाहर, जिसे भी छलांग लगानी हो, उसे वासना के बाहर होना पड़ता है और साक्षी का भाव वासना के बाहर ले जाता है। जैसे कोई व्यक्ति साक्षी हो गया वह वासना के बाहर चला जाता है और हमारी कठिनाई यह है कि जीवन में साक्षी होना बहुत कठिन है । हम नाटक, फिल्म तक में साक्षी नहीं हो सकते । फिल्म के परदे पर, जहाँ कुछ भी नहीं है, जहाँ सिवाय प्रकाश के, कम ज्यादा फेंके गए किरण-जाल के और कुछ भी नहीं है, वहां हम कितने दुःखो, सुखी, क्या-क्या नहीं हो जाते ? तीन आयामों (थी डायमैन्शन) में एक फिल्म बनी है । जब पहली बार उसका प्रदर्शन हुआ तो बड़ी हैरानी हुई क्योंकि उसमें तो बिल्कुल ऐमा दिखाई पड़ा कि आदमो पूरा है । यह जो फिल्में है दो आयामों में बनी हैं, लम्बाई-चौड़ाई गहराई नहीं है इनमें । गहराई फिल्म में आ जाती है तो फिर सच्चे आदमी में और फिल्म के आदमी में कोई फर्क नहीं रहता । पर्दे पर जो दिखाई पड़ रहा है, वह बिल्कुल सच्चा हो गया है । जब पहली बार यह फिल्म बनो, लन्दन में उसका प्रदर्शन हुआ। उसमें एक घोड़ा है, एक घुड़सवार है जो भागा चला आ रहा है । हाल के सारे लोग एकदम झुक गए कि वह घोड़ा एकदम हाल के अन्दर से निकल जाए । एक भाला फेंका उस घुड़सवार ने और सब लोग अपनी खोपड़ी बचाने को फिक्र में पड़ गए कि कहीं वह खोपड़ी में न लग जाए। तब पता चला कि आदमी उस पल में कितना भूल जाता है कि यह परदा है । और हम सब रोज भूलते हैं। हम साक्षी नहीं रह पाती। ___टालस्टाय ने लिखा है "मैं बड़ा हैरान हुआ। मेरी मां रोज थियेटर जाती थी। रूस की सर्दी ! बाहर थियेटर के बग्यो खड़ा रहती, बग्यो पर दरवान खड़ा रहता क्योंकि मेरी मां कब बाहर आ जाए, पता नहीं। मैं देखकर हैरान हुआ कि मेरी माँ थियेटर में इतना रोती कि उसके रूमाल भीग जाते। बाहर हम आते और अक्सर ऐसा होता कि कोचवान बर्फ की वजह से मर जाता, तो उसे बाहर फिकवा दिया जाता और मां आंसू पोंछतो रहती फिल्म के । मैं दंग रह जाता, हैरान रह जाता यह देखकर कि एक जिन्दा आदमी मर जाय हमारी कोच पर बैठा हुआ सिर्फ इसलिए कि हम उसको छुट्टी नहीं कर सकते, न हटा