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महावीर : मेरी दृष्टि में
मतलब नहीं रह जाता। 'मैं' 'है'- इसका कोई अर्थ नहीं। 'मैं था'-इसका कोई अर्थ नहीं। 'मैं होऊंगा'-इसका कोई अर्थ नहीं। लेकिन मेरे भीतर जो सदा है, वही सार्थक है। और वह सब के भीतर है और वह एक हो है । तो व्यक्ति खो जाता है, अहंकार खो जाता है। तब जिसका जन्म होता है उसी को हम कहेंगे 'बदला हुआ चित्त', बदली हुई चेतना जो भी नाम देना चाहें, हम दे सकते हैं।
प्रश्न : जड़ और चेतना दो पृथक् चीजें हैं या एक ही वस्तु के दो रूप ?
उत्तर : ये पृथक् चीजें नहीं है । पृथक् दिखाई पड़ती हैं। जड़ का मतलब है इतना कम चेतन कि हम अभी उसे चेतन नहीं कह पाते। चेतन का मतलब है इतना कम जड़ कि अब हम उसे जड़ नहीं कह पाते। वह एक ही चीज के दो छोर हैं। जड़ता चेतन होती चली जा रही है, जड़ता में भीतर कहीं चेतन छिपा है । फर्क सिर्फ प्रकट और अप्रकट का है। और जिसको हम जड़ कहते हैं, वह अप्रकट चेतन है यानी जिसकी अभी चेतना प्रकट नहीं हुई है । जिसको हम चेतन कहते हैं, वह प्रकट हो गया है । जैसे कि एक बीज रखा है और एक वृक्ष खड़ा है । कौन कहेगा कि बीज और वृक्ष एक ही है ? क्योंकि कहाँ वृक्ष ? और वहां बीज ? लेकिन बीज में वृक्ष अप्रकट है। बस इतना ही फर्क है । दो दिखाई पड़ते हैं; दो है नहीं। और जहाँ-जहाँ हमें दो दिखाई पड़ते हैं, वहां-वहाँ दो नहीं हैं। 'है' तो एक ही लेकिन हमारे देखने की क्षमता इतनी सीमित है कि हम दो में ही देख सकते हैं। यह हुआ है हमारी सीमित क्षमता के कारण क्योंकि जड़ में हमें चेतन दिखाई नहीं पड़ता और चेतन को हम कैसे जड़ कहें। इसलिए जो झगड़ा चलता आ रहा है वह एकदम बेमानी है।
जिन लोगों ने कहा कि यह पदार्थ ही है, वे भी ठीक कहते हैं । क्योंकि सब पदार्थ में ही तो आ रहा है तो कहा जा सकता है कि पदार्थ ही है। इसमें झगड़ा कहाँ है ? लेकिन कोई कहता है कि पदार्थ है ही नहीं। बस, चेतन ही है। वह भी ठीक कहता है । वे ऐसे ही लोग है जैसे एक कमरे में आवा भरा गिलास रखा हो और एक आदमी बाहर आए और कहे कि गिलास आधा खाली है।
और फिर दूसरा आदमी बाहर आए और कहे : गलत बोलते हो बिल्कुल ! गिलास आधा भरा है । और दोनों विवाद करें। और तब दो सम्प्रदाय बन जाएँगे । और ऐसे लोगों के सम्प्रदाय बनते हैं जो भीतर कभी जाते नहीं दीखते कि गिलास कैसा है ? मकान के बाहर ही निर्णय कर लेते हैं। दो आदमी खबर लाएं और एक कहें कि मकान के भीतर जो गिलास है वह आधा खाली है