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प्रश्नोत्तर - प्रवचन- १६
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आगे नहीं, कोई पीछे नहीं । वहाँ सब पूर्ण के निकट होने से, पूर्ण में होने से कोई विकास नहीं होता । परमात्मा से मतलब समग्र जीवन के अस्तित्व का है । वहीं विकास का कोई अर्थ ही नहीं । जैसे एक बैलगाड़ी जा रही है, चाक चल रहे हैं । बैलगाड़ी में बैठा हुआ मालिक भी चल रहा है, बैल-भी चल रहे हैं । बैलगाड़ी प्रति पल आगे बढ़ रही है। विकास हो रहा है। लेकिन कभी आपने ख्याल किया कि बढ़ते हुए चाकों के बीच में एक कील है रही है, जो वहीं की वहीं खड़ी है । चाक उसके ऊपर घूम रहा है । अगर कील भी चल जाए तो चाक गिर जाएगा । कील नहीं चलतो है इसलिए चाक चल पाता है । कील भी चली कि अभी गाड़ी गई। फिर कोई विकास नहीं होगा ।
जो हिल भी नहीं
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मेरा कहना है कि जो कि विकास हो रहा है वह किसी एक चीज के केन्द्र पर हो रहा है पूर्ण के चारों तरफ विकास का चक्र घूम रहा है और पूर्ण अपनी जगह खड़ा हुआ है । हो सकता है आपने कील पर ख्याल ही न किया हो, सिर्फ चाक के घूमने को ही देखा हो । लेकिन जिसने कील पर ख्याल कर लिया उसके लिए चाक का घूमना बेमानी हो जाता है। कबीर ने एक पंक्ति लिखी है कि चलती हुई चक्की को देखकर कबीर रोने लगा । और उसने लौट कर अपने मित्रों से कहा कि बड़ा दुःख मुझे हुआ क्योंकि दो पाटों के बीच जितने दाने मैंने पड़े देखे, सब चूर हो गए। और दो पाटों के बीच में जो पड़ जाता है, वह चूर हो जाता है । उसका लड़का कमाल हँसने लगा । उसने कहा : ऐसा मत कहो । क्योंकि एक कील भी है दो चाकों के बीच में और जो उसका सहारा पकड़ लेता है, वह कभी चूर होता हो नहीं ।
इस पूरे अस्तित्व के विकासचक्र के बीच में भी एक कील है । उस कील को कोई परमात्मा कहे, धर्म कहे, आत्मा कहे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । जो उस कील के निकट पहुँच जाता है वह उतना ही चाकों के बाहर हो जाता है । उस कील के तल पर कोई गति नहीं है । सब गति उसी के ऊपर ठहरी हुई है । महावीर जैसे व्यक्ति कोल के निकट पहुँच गये हैं- जहाँ कोई लहर भी नहीं उठती, कोई तरंग भी नहीं उठती, जहाँ कभी विकास नहीं होता, जहाँ कोई भी पहुँचे, अनुभव वही होगा । जहाँ गति नहीं,
वहाँ कोई विकास नहीं ।
तो महावीर की अहिंसा में कोई गति नहीं है, कोई प्रगति नहीं है, कोई विकास नहीं है ।