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महावीर :मेरी टि. है जो इस मीतरी जगत् से उठता है वहां व्यक्ति कहता है कि जहां अचान नहीं, बंधकार नहीं, दुःख नहीं, अशांति नहीं, क्रोष नहीं, घृणा नहीं, द्वेष नहीं, मैं ऐसा जीवन चाहता है। इस आन्तरिक असंतोष से पामिक व्यक्ति का जन्म होता है। इस जीवन में महावीर को यह असंतोष भी नहीं है क्योंकि पार्मिक व्यकि का जन्म हो चुका है लेकिन पिछले जन्मों में जो उनका नितान्त असंतोष है वह आध्यात्मिक है; वह सामाजिक या पारिवारिक नहीं है।
आध्यात्मिक असन्तोष बहुत कीमती चीज है और वह जिसमें नहीं है वह व्यक्ति कभी उस यात्रा पर जाएगा ही नहीं जहां आध्यात्मिक संतोष उपलब्ध हो जाए । जिस मसन्तोष से हम गुजरते हैं उसी तल का सन्तोष हमें उपलब्ध हो सकता है। अगर धन का असन्तोष है तो ज्यादा से ज्यादा धन मिलने का सन्तोष उपलब्ध हो सकता है। लेकिन बड़े मजे की बात है कि जिस तल पर हमारा असन्तोष होगा उसी तल पर हमारा जीवन होगा। प्रत्येक व्यक्ति को सोज मेना चाहिए कि मैं किस बात से असन्तुष्ट हूँ तो उसे पता चल जाएगा कि वह किस तक पर जी रहा है। अब यह हो सकता है कि एक आदमी महल में जो रहा है, विकास में, भोग में। भोर एक मादमी लंगोटी बांध कर संन्यासी की तरह सड़ा है-पा, धूप में, सर्दी में, वर्षा में। इससे कुछ पता नहीं चलता कि कौन धार्मिक है। पता चलेगा यह बानकर कि इस व्यक्ति के भीतर असंतोष
या है। हो सकता है कि महल में जो व्यक्ति है उसके मन में यह असन्तोष हो कि यह महल किस मतलब का है, यह पन किस मतलब का है। और उसे यह पसन्तोष पकड़े हुए है कि मैं उसे कैसे पाऊँ जो मेरा स्वरूप है, जो मेरा अन्तिम मानन्द है। सोता है महल में लेकिन उसका असन्तोष उस तल पर चल रहा है। तो वह व्यक्ति माध्यात्मिक है, पामिक है। पर एक मादमी लंगोटी बांधे सड़क पर खड़ा है, मन्दिर में प्रार्थना कर रहा है, पूजा कर रहा है। लेकिन प्रार्थना में मांग कर रहा है कि आज अच्छा भोजन मिल जाए, ठहरने को अच्छी जगह मिल जाए, इज्जत मिल जाए, अनुयायी मिल जाएं, भक्त मिल पाएं, वामम मिल पाए। अगर वह इसी तरह की प्रार्थना मन्दिर में भी कर रहा है तो वह पार्मिक नहीं है। हमारा बसन्तोष ही हमारी सबर देता है कि हम क्या है? ___ महावीर इस जीवन में किसी बसन्तोष में नहीं लेकिन पिछले सारे जन्नों में उनके सातोष की एक लम्बी यात्रा है। वह निरन्तर यही है कि मेरा अस्तित्व, मेरा सत्य, मेरी यह स्थिति वहाँ में परम भूषत हो जाऊँ, न