________________
प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१२
३७१
आदमी क्रोष करे और दुःख न झेले । यह भी असम्भव है कि कोई आदमी प्रेम करे और आनन्द का अनुभव न करे । क्योंकि प्रेम की क्रिया में ही मानन्द का झरना शुरू हो जाता है। एक आदमी रास्ते पर गिरे हुए किसी आदमी को उठाए, उठाए अभी और अगले जन्म तक आनन्द की प्रतीक्षा करे, ऐसा नहीं। उठाने के क्षण में ही भरपूर आनन्द उसके हृदय को भर जाता है। ऐसा नहीं है कि उठाने का कृत्य कहीं अलग है और फिर आनन्द कहीं दूसरी जगह प्रतीक्षा करेगा। तो कहीं कोई हिसाब-किताब रखने की जरूरत नहीं। इसलिए महावीर, भगवान् को बिदा कर सके। अगर हिसाब-किताब रखना है जन्म-जन्मान्तर का तो फिर नियन्ता की व्यवस्था जरूरी है।
नियन्ता को जरूरत वहाँ होती है जहाँ नियम का लेखा-जोखा रखना पड़ता है। क्रोध में अभी करूं और फल मुझे किसी दूसरे जन्म में मिले तो इसका हिसाब कहां रहेगा? यह कहाँ लिखा रहेगा कि मैंने क्रोष किया था और मुझे यह-यह फल मिलना चाहिए और कितना क्रोध किया था, कितना फल मिलना चाहिए ? अगर सारे व्यक्तियों के कर्मों को कोई इस तरह की व्यवस्था हो कि अभी हम कम करेंगे फिर कभी अनन्त काल में भोगेंगे तो बड़े हिसाबकिताब की जरूरत पड़ेगी, बड़े खाते-बहियों को। नहीं तो कैसे होगा यह ? फिर इस सब इन्तजाम के लिए एक महालिपिक की भी जरूरत पड़ेगी जो हिसाब-किताब रखता हो। और परमात्मा को बहुत से लोगों ने महालिपिक की तरह ही सोचा हुआ है । तो इनके विचार में वह नियन्ता है, सारे नियम की देखरेख रखता है कि नियम पूरे हो रहे हैं या नहीं।
महावीर ने बड़ी वैज्ञानिक बात कही है। उन्होंने कहा : नियम पर्याय हैं, नियन्ता कि जरूरत नहीं है क्योंकि नियम स्वयं वह काम करता है । जैसे आग में हाथ डालते हैं, हाथ जल जाता है। यह आग का स्वभाव है कि वह जलाती है। यह हाथ का स्वभाव है कि वह जलता है। अब डालने की बात है । डालने से संयोग हो जाता है। डालना कर्म बन जाता है और पीछे जो भोगना है वह फल बन जाता है। इसमें किसी को भी व्यवस्थित होकर खड़े होने की जरूरत नहीं। आग को कहने की जरूरत नहीं कि तू अब जला, यह आदमी हाथ डालता है। हाथ डालना और जलना• यह बिल्कुल हो स्वयंभू नियम के अन्तर्गत है। नियम है, नियन्ता नहीं। क्योंकि महावीर कहते हैं कि अगर नियन्ता हो तो नियम में गड़बड़ होने की सम्भावना रहती है। क्योंकि प्रार्थना करें, खुशामद करें, हाथ जोड़ें नियन्ता को। नियन्ता किसी पर खुश