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महावीर : मेरी दृष्टि में
जिनको जैन होने का कोई पागलपन नहीं है। जिनको जैन होने का पागलपन है, वे कभी नहीं पहुँचते। क्योंकि जैन होने का भ्रम व्रत आदि से होता है कि मैं रात को खाना नहीं खाता इसलिए मैं जैन हूँ, कि मैं पानी छानकर पीता हूँ इसलिए मैं जैन हूँ, कि मैंने अणुव्रत लिए हुए हैं इसलिए मैं जैन हूँ, कि मैं सामायिक करता हूँ, इसलिए मैं जैन हूँ। यानी उसका जैन होना व्रतों पर ही निर्भर है। वह श्रावक है, तो श्रावक के व्रत हैं। साधु है तो साधु के व्रत हैं। अवती बात ही अलग है। सब अव्रती है । लेकिन अव्रती स्थिति में जो प्रज्ञा को जगाता है तो वह अव्रती सम्यक् हो जाता है।
प्रश्न : मैं समझता हूं कि जैसा शास्त्र कह ही रहे हैं कि जो व्यक्ति बत, अन्त दोनों से ऊपर हो जाता है वही बात आप कह रहे हैं।
उत्तर : वह तो पीछे होगा। लेकिन व्रत पालनेवाला, व्रत बांधनेवाला कभी नहीं हो पाएगा। समझ आएगो तो चीजें मिट जाती हैं । उदाहरण के लिए, अगर समझ आएगी तो हिंसा मिट जाती है। शेष रह जाती है अहिंसा । लेकिन व्रती की हिंसा भीतर होती है और वह अहिंसा थोपता है। व्रती की अहिंसा हिंसा के विरोध में तैयार करनी पड़ती है। प्रज्ञावान् की हिंसा विदा हो जाती है, शेष रह जाती है अहिंसा । प्रज्ञावान् की अहिंसा हिंसा का विरोध नहीं है, वह हिंसा का अभाव है। व्रती की अहिंसा हिंसा का विरोध है, अभाव नहीं। और जिसका विरोष है, वह सदा मौजूद रहता है। वह कभी नहीं मिटता।
प्रश्न : व्रत निरर्थक है । यह व्रत पालने से मालूम पड़ेगा?
उत्तर : हां, बिल्कुल पड़ेगा। और जितने व्रती हैं, उनको जितने जोर से मालूम पड़ता है, उतना आपको नहीं मालूम पड़ता। अगर वे भी सेक्स को तरह इसमें मूच्छित ही लगे हों कि रोज सुबह मन्दिर चले जाते हैं मूच्छित और कभी जागकर नहीं देखा कि क्या मिला, यह प्रश्न ही अगर न पूछा तो जन्म जन्मान्तर तक व्रत मानते रहेंगे। यह प्रश्न पूछ लिया हो तो अभी टूट जाएगा इसी वक्त । अगर व्रती समझ ले मेरी बात को तो उसको जल्दी समझ में आ जाएगी बजाए आपके। क्योंकि उसको व्रत की व्यर्थता का अनुभव भी है। लेकिन वह अनुभव को देखना नहीं चाहता, मूर्छा की तरह चला जाता है। वह कहता है अभी. नहीं हुआ तो कल होगा, कल नहीं हुआ तो परसों होगा और कुछ तो हो ही रहा है। मेरे पास लोग आते हैं और कहते हैं कि मैं