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महावीर : मेरी दृष्टि में
सको, आनन्द भोग सको। उपादेयता यह थी। उसका जो गहरे से गहरा परिणाम होना चाहिए था व्यक्ति के चित्त पर वह यह था कि तुम जो कर रहे हो वही तुम भोग रहे हो। अगर तुम क्रोष करोगे तो दुःख भोगोगे, भोग हो रहे हो। इसके पीछे ही वह आ रहा है छाया की तरह । बगर तुम प्रेम कर रहे हो, शान्ति से जी रहे हो, दूसरे को शान्ति दे रहे हो तो तुम शान्ति अजित कर रहे हो जो आ रही है पीछे उसके, जो तुम्हें मिल जाएगी, मिल ही गई है। यह तो अर्थ था उसका । लेकिन इस सिद्धान्त का इस तरह से उपयोग करना जीवन की इस घटना को समझने के लिए उस अर्थ को नष्ट कर देगा। क्योंकि कोई भी व्यक्ति इतना दूरगामी चित्त का नहीं होता कि वह अभी कर्म करे और अगले जन्म में मिलने वाले फल से चिन्तित हो। होता ही नहीं इतना दूरगामी चित्त। अगला जन्म अंधेरे में खो जाता है। क्या पक्का भरोसा है अगले जन्म में। पहले तो यही पक्का नहीं कि अगला जन्म होगा। दूसरा यह पक्का नहीं कि जो कर्म अभी फल नहीं दे पा रहा, वह अगले जन्म में देगा। अगर एक जन्म तक रोका जा सकता है फल को तो अनेक जन्मों तक क्यों नहीं रोका जा सकता ? फिर दूसरी बात यह कि मनुष्य का चित्त तत्कालजीवी है। चित्त को यह क्षमता ही नहीं है कि वह इतनी देर तक की व्यवस्था को पकड़ सके। वह जीता तत्काल है। वह कहता है, ठीक है, अगले जन्म में जो होगा, होगा। अभी जो हो रहा है, वह हो रहा है। अभी मैं सुख से जी रहा हूँ। अभी मैं क्यों चिन्ता करूं अगले जन्म की। जो उपादेयता थी वह भी नष्ट हो गई, जो सत्य था वह भी नष्ट हो गया। सत्य है कार्यकारण सिद्धान्त जिस पर सारा विज्ञान खड़ा हुआ है। और अगर कार्य-कारण सिद्धान्त को हटा दो तो सारा विज्ञान का भवन गिर जाएगा।
ह्य म ने इंग्लण्ड में इस बात की कोशिश की कि कार्य-कारण का सिद्धान्त गलत सिद्ध हो जाए। वह बहुत कुशल और अद्भुत विचारक था। उसने कहा कि तुमने कार्य-कारण देखा कर है। तुमने देखा है कि एक आदमी ने आग में हाथ डाला और उसका हाथ जल गया। लेकिन तुम यह कैसे कहते हो कि आग में डालने से हाथ जल गया। दो घटनाएं तुमने देखीं। आग में हाथ डाला यह देखा। हाथ जला हुआ निकला यह देखा। लेकिन आग में डालने से जला, इस बोच के सूत्र तुम कैसे पहचान गए ? तुम्हें यह कहां से पता चला ? हो सकता है कि ये दोनों घटनाएं कार्य-कारण न हों, सिर्फ सहगामी घटनाएं हों। जैसे ह्यम ने कहा कि दो घड़ियां हमने बना ली। दो घड़ियां लटका