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महावीर : मेरी दृष्टि में
और सबको पता था कि कौन जीतेगा क्योंकि जो सबसे बड़ा पण्डित था, वही जीतेगा। उस पण्डित ने जाकर द्वार पर लिख दिया शिक्षक के धर्म को चार सूत्रों में । लिख दिया कि मनुष्य की आत्मा एक वर्पण की भांति है; उस पर विकार की, विचार की धूल मच जाती है। उस पूल को पोंछ डालने का जो साधन है, वह धर्म है। सारे लोग पढ़ गए और कहा कि अद्भुत है; बात तो परी हो गई। और तो कुछ होता ही नहीं आत्मा में। सिर्फ धूल जम जाती है, उसको झाड़ देने का जो साधन है वह धर्म है। लेकिन गुरु सुबह उठा है, बूढ़ा गुरु अस्सी वर्ष का । उसने देखा । उसने कहा कि यह किस नासमझ ने दीवार खराब की है । उसको पकड़ कर लाया जाए इसी वक्त । तो वह पंडित एकदम भाग गया क्योंकि उसने कहा कि वह गुरु पकड़ लेगा फोरन क्योंकि यह सब किताबों से पढ़ कर उसने लिखा है । सारे आश्रम में चर्चा हुई। वह दस्तखत भी नहीं कर गया था उसके नीचे। इसी डर से अगर गुरु पसन्द करेगा तो जा कर कह दूँगा मैंने लिखा है और अगर नापसन्द कर देगा तो झंझट के बाहर हो जाएंगे। सारे आश्रम में चर्चा चल पड़ी कि क्या हो गया।
एक माक्ष्मी आज से कोई बारह साल पहले आया था और बारह साल पहले इस बुड्ढे के पैर को पकड़ कर कहा था कि संन्यासी होना है मुझे। इस बुड्ढे आदमी ने पूछा था : तुझे संन्यासी दीखना है या कि होना है। उसने कहा था कि दीख कर क्या करेंगे? और दोखना होता तो आपसे पूछने की क्या जरूरत थी। हम दीख जाते । तो उसने कहा होना बहुत मुश्किल है। होना है तो फिर एक काम कर । आश्रम में पांच सौ भिक्षु हैं। उनका जो चौका है, जहाँ चावल बनता है, खाना बनता है वहां तू चावल कूटने का काम कर और दुबारा मेरे पास मत आना, माना ही मत। जरूरत होगी तो मैं तेरे पास आऊँगा। न किसी से बात करना, न कपड़े बदलना, चुपचाप जैसा तू है, उस आश्रम के चौके के पीछे चावल कूटने का काम कर और दुबारा आना मत, भूल कर भी मेरे पास । जरूरत होगी तो मैं आ जाऊंगा। नहीं होगी तो बात खत्म हो गई। वह युवक बारह साल पहले से आश्रम के पोछे जाकर चावल कूटता रहा। लोग धीरे-धीरे उसको भूल भी गए क्योंकि वह और कोई काम हो नहीं करता था। वह आश्रम के पीछे चावल कूटता रहता था। न किसी से बोलता था । सुबह उठता था; चावल कूटता था। शाम को थक जाता था, सो जाता था। बारह साल हो गए । न कभी गुरु' उसके पास गया। न कभी वह दुबारा पूछने पाया।