________________
महावीर : मेरी दृष्टि में
को पकड़ा देना। और यह एक अनन्त वृत्त है। इसकी उपलब्धि कुछ है नहीं। तुम स्वयं को तो कभी उपलब्ध कर ही नहीं सकते दोनों हालतों में । तुम व्यक्ति ही नहीं बन पाते अगर राग और विराग में पड़े हुए हो तुम।
और वह जो कहते हैं कि राग और द्वेष से छूट जाना वीतरागता है, वह बड़ी गलत व्याख्या कर रहे हैं। वे विराग को बचा जाते हैं। राग और द्वेष से मुक्त हो जाना अगर वीतरागता का अर्थ उन्होंने किया तो वे विराग को बचा जाते हैं, और वह तरकीब है बहुत शरारतपूर्ण। राग का ठीक विरोधी विराग है, द्वेष नहीं। द्वेष तो राग का ही हिस्सा है, विरोध नहीं । विरोधी तो विराग है। द्वन्द्व विराग का है राग से, द्वेष से नहीं । तो वे तरकीब से बनाए गए हैं। उन्होंने विरागी को बचा लिया है, विरागी और वीतरागी को सीढ़ी बना दिया है। वे कहते हैं कि वैराग्य से वीतराग की सीढ़ी जाती है। मैं कह रहा हूँ चाहे राग से जाओ, चाहे विराग से, वीतराग होने का फासला दोनों से बराबर है। इसे हम समझें।
दूसरी बात यह कि यह कठिन नहीं है, क्योंकि जो स्वभाव है वह अन्ततः कठिन नहीं हो सकता, विभाग ही कठिन हो सकता है। और, जो स्वभाव इतना आनन्दपूर्ण है कि उसकी एक झलक मिलनी शुरू हो जाए तो हम कितने ही पहाड़ उसके लिए चढ़ जाते हैं। बस झलक जब तक नहीं मिलती तब तक कठिनाई है। और मलक राग और विराग मिलने नहीं देते। यह जरा सा भी हटे तो उसकी झलक मिलनी शुरू हो जाती है। जैसे नाकाश में बादल घिरे हुए हैं और सूरज की किरण भी दिखाई नहीं पड़ती। जरा सा बावल सरके और किरण झांकने, पड़ने लगती हैं। राग और विराग के द्वन्द्व की जरा सी टूट जाए खिड़की तो वीतरागता का आनन्द बहने लगता है। और वह बहने लगे तो कितनी ही यात्रा पर जाना सम्भव है, कठिन नहीं। लेकिन हम क्या करते हैं : हम राग से विराग में जाते हैं, विराग से राग में जाते हैं। ये दोनों हो एक से घेरने वाले बादल हैं। इसलिए कभी सन्धि भी नहीं मिगती उसको जाने की। राग और विराग में डोलते हुए मनुष्यों का जो समाज है, वह नियम बनायेगा ही। क्योंकि राग विराग में डोलता हुआ आदमी बहुत खतरनाक है। इसलिए नियम बनाने पड़ेंगे। और नियम कौन बनायेगा ? वही राब विरान में डोलते हुए आदमी नियम बनायेंगे। राग विराग में डोलते हुए लोग सतरनाक हैं।.राग विराग में गेलने हुए नियम बनाने वाले लोग और भी खतरनाक है।