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प्रवचन-५
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है। मकान मेरा ही है और जल रहा है तो मकान के जलने की पीड़ा है या 'मेरे' के जलने की। और अगर 'मेरे' के जलने की पीड़ा है, तो जो आदमी कहता है 'मेरा मकान', उसको भी पकड़ है; जो आदमी कहता है 'मेरा मकान' मैं त्याग करता हूँ, उसकी भी पकड़ है। लेकिन जो आदमी कहता है 'कौन सा मकान ? मेरा है कोई मकान ? मुझे पता नहीं चलता मेरा कौन सा मकान है ? मेरा कोई मकान ही नहीं है, मैं बिल्कुल बिना मकान के हूँ अगृही है वह । अगृही का मतलब यही है । अगृहो का मतलब यह नहीं कि जिसने घर छोड़ दिया है । अगृही का मतलब यह है जिसने पाया कि कोई घर है ही नहीं। इसे ठीक से समझ लेना।
संन्यासी को हम कहते हैं अगृहो, गृहस्थ नहीं। लेकिन कोन है अगृही ? जिसने घर छोड़ दिया। मगर उसका घर बाकी है; वह चाहे पहाड़ों में, चाहे हिमालय में चला जाए, जिस घर को छोड़ा, वह अभी उसका घर है। अगृही का मतलब है जिसने पाया कि घर तो कहों है ही नहीं, कोई घर ऐसा नहीं है। संन्यासी का मतलब यह नहीं जिसने पत्नी का त्याग किया । संन्यासी का मतलब है कि जिसने पाया कि पत्नी कहाँ है ? संन्यासी का मतलब यह नहीं कि जिसने साथी छोड़ दिये हैं। संन्यासी का मतलब है जिसने पाया कि साथी कहां हैं ? खोजा
और पाया कि साथी तो कहीं भी नहीं है कोई, बिल्कुल अकेला हूँ। इन दोनों बातों में बुनियादी भेद है। पहले में हम कुछ पकड़ कर छोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। दूसरे में हम पाते हैं कि पकड़ का उपाय ही नहीं है, किसको पकरें, कहाँ पकड़ने नाएं।
तो महावीर कुछ त्याग नहीं रहे हैं। जो उनका नहीं है, वह दिखाई पड़ गया है। इसलिए कोई पकड़ नहीं है। इसलिए यह कहना बिल्कुल व्यर्थ की बात है कि वह सब छोड़ कर जा रहे हैं। वह जानकर जा रहे हैं कि कुछ भी उनका नहीं है। और अगर हम इस बात को समझ लेंगे तो महावीर के बाबत समस्त त्याग के बाबत हमारो दृष्टि ही दूसरो हो जाएगी। तब हम लोगों को यह न समझाएंगे कि तुम छोड़ो, तुम त्याग करो। हम लोगों को समझाएंगे कि तुम देखो, तुम्हारा क्या है ? तुम्हारा है कुछ ? '
एक सम्राट् था इब्राहीम । उसके द्वार पर एक संन्यासी मुबह से ही शोर गुल मचा रहा है। और पहरे दार से कहता है : मुझे भीतर जाने दो, मैं इस