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प्रवचन-७
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वह किसी तत्त्व विचार से नहीं निकली है। वह अहिंसा की बात नीचे के जगत् के तादात्म्य से निकली है। उस तादात्म्य में उन्होंने जो पीड़ा अनुभव को नीचे के जगत् की, उस पीड़ा की वजह से, अहिंसा उनके जीवन का परम तत्व बन गया है । इसमें दो बातें समझने जैसी है। आम तौर से यह समझा जाता है कि जो अहिंसक है, वह मोक्ष की साधना कर रहा है। अहिंसा से जिएगा तो मोक्ष में चला जाएगा । लेकिन ऐसे लोग भी मोक्ष में चले गए हैं, जो अहिंसा से नहीं जिए हैं । न तो क्राइस्ट अहिंसक है, न रामकृष्ण, न मुहम्मद । ऐसे लोग मोम में चले गए हैं जो अहिंसा से नहीं जिए हैं।
__ इसलिए जिनको यह ख्याल है कि अहिंसा से जीने से मोक्ष में जाएंगे वे महावीर को नहीं समझ पाए। बात बिल्कुल ही दूसरी है। महावीर ने मनुष्य से नीचे का जो मूक जगत् है, उससे जो तादात्म्य स्थापित किया है और उसकी जो पोड़ा अनुभव की है, वह इतनी सघन है कि अब उसे और पोड़ा देने की कल्पना भी असम्भव है । इतनो असम्भव किसी के लिए भी नहीं रही कभी भी, जितनी महावीर के लिए असम्भव हो गई। और यह जिस अनुभव से आया है, वह उस जगत को अपने प्राणों में विस्तीर्ण करने का प्रयोग था। इस प्रयोग करने में अहिंसा निर्मित होने में दो बातें हुईं। एक यह कि जो पीड़ा अनुभव की, उन्होंने नीचे के जगत् की, वह इतनी ज्यादा है कि उसमें जरा भी कोई बढ़ती करे किसी भी कारण से तो वह असहा है। दूसरी बात उन्होंने यह अनुभव को कि अगर व्यक्ति पूर्ण अहिंसक न हो जाए तो नीचे के जगत् से तादात्म्य स्थापित करना बहुत मुश्किल है। यानी हम तादात्म्य उसी से स्थापित कर सकते है जिसके प्रति हमारा समस्त हिंसक भाव, बाक्रामक भाव विलीन हो गया हो और प्रेममात्र उदय हो गया हो । तादात्म्य सिर्फ उसी से सम्भव है । अगर मूक जगत् से तादात्म्य स्थापित करना है तो महिसा शर्त भी है । नहीं तो वह तादात्म्य स्थापित नहीं हो सकता।
जैसे मैंने संत फ्रांसिस का नाम लिया। इस बादमो ने पशुनों के साथ सम्बन्ध स्थापित करने में बेजोड़ काम किया है। इस बात की बाखों देखी गवाहियां हैं कि जब संत फ्रांसिस नदी के किनारे खड़ा हो जाता तो सारी मछलियां तट पर इकट्ठी हो जाती, सारी नदी खाली हो जाती। न केवल वे इकट्ठी हो जाती बल्कि छलांग लगाती फ्रांसिस को देखने के लिए। जिस वृक्ष के मीचे वह बैठ जाता उस जगत् के सारे पक्षी उस वृक्ष पर बा नाते। न केवल