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प्रश्न : महावीर सब कुछ अपना मौलिक कहते हैं । वे किसी के अनुयायी नहीं थे । उनका अपना कुटुम्ब रहा होगा। उन्होंने अपना पंच स्वता निर्माण किया। फिर वह पार्श्वनाथ के पंच से कैसे मेल खा गया? और जैन नाम का जो सम्प्रदाय महावीर के साथ जुड़ा वे कौन लोग थे और वे क्या कहलाते थे ?
उत्तर : इसमें दो तीन बातें समझने की है। पहली बात यह कि महावीर के साथ ही पहली बार विचार की एक धारा सम्प्रदाय बनी । महावीर के पहले जो विचारधारा यो उसका आर्यपरम्परा से पृथक् अस्तित्व नहीं था। वह आर्यपरंपरा के भीतर पैदा हुई एक धारा थी। उसका नाम 'श्रमण' था। वह जैन, नहीं कहला रही थी तब तक । और 'श्रमण' कहलाने का कारण यह था कि ब्राह्मणधारा इस बात पर श्रद्धा नहीं रखती है कि श्रम, साधना और तप के माध्यम से परमात्मा को पाया जा सकता है। ब्राह्मण धारा का विश्वास है कि परमात्मा को पाया जा सकता है विनम्र भाव में, प्रार्थना में, शास्त्रविधि में, दीनभाव में, जहाँ हम बिल्कुल असहाय है, जहाँ हम कुछ भी नहीं कर सकते, जहाँ करने वाला वही है। इस पूर्ण दीनता को जीसस ने 'पावर्टी ऑफ स्पिरिट' कहा है, जहाँ मनुष्य कहता है कि मैं दीन और दरिद्र हूँ, मैं कर ही क्या सकता हूँ, मैं सिर्फ मांग सकता हूँ, मैं अपने को हाथ जोड़कर समर्पण कर सकता हूँ।' ऐसी एक धारा यो जो परमात्मा को या सत्य को दोन और विनम्र भाव से मांगती थी । उससे ठीक भिन्न और विपरीत एक धारा चलनी शुरू हुई जिसका बाधार श्रम था, प्रार्थना नहीं; जिस का आधार यह. नहीं था कि हम प्रार्थना करेंगे, पूजा करेंगे और मिल जाएगा किन्तु जिसका आधार यह था कि हम श्रम करेंगे, संकल्प करेंगे, श्रम और संकल्प से जीता जाएगा।