________________
उसमें मुझे ऐसा
किन्तु एक तिहाई
प्रश्न : प्राप जो कुछ जैन दृष्टि के बारे में कह रहे हैं लगा कि दो तिहाई बातों से सभी लोग सहमत हो जाएंगे । अंश ऐसा है जिससे सहमति कठिन है। पहली बात आप कहते हैं सम्यक् दर्शन की । जिसने थोड़ा भी शास्त्र पढ़ा है वह यह जानता है कि सम्यक दर्शन के बिना चरित्र का कोई अर्थ नहीं । सम्यक् दर्शन के बिना जो कुछ होता है, वह चरित्र कहलाता ही नहीं। यह दृष्टि बहुत स्पष्ट है। यह भी स्पष्ट है कि चरित्र का और कोई अर्थ नहीं है अतिरिक्त 'आत्मस्थिति' के । आत्मा में स्थित हो जाना, यही चरित्र का अर्थ है । इन दोनों अर्थों में आपसी सहमति लगती है । पर, सम्यक् दर्शन होने के बाद और 'आत्मस्थिति' में पूर्ण स्थिति होने के पहले जो बीच का अन्तराल है, उसमें आपको दृष्टि परम्परागत दृष्टि से कुछ भिन्न नजर आती है । परम्परा में ऐसा मानते हैं लोग कि एक चरित्र का क्रमिक विकास है । उस चरित्र का बाह्य स्वरूप भी है जिसे त्रिगुप्ति मौर पंचसमिति नाम से अष्टप्रवचनमातृका कहते हैं। उसे कि मन, बचन, कार्य का संयम और आहार व्यवहार में विवेक । यही चरित्र का स्वरूप मानते हैं । पर यह जो अष्टप्रवचनमातृका है, यह पंच व्रतों की रक्षा करने के लिए हैं । इस पंचव्रत और अष्टप्रबचनमातृका का भी एक सुनिश्चित स्थान जैन आचार मीमांसा में है। अब प्राप उस सम्बन्ध में क्या कहेंगे? यदि यहां आपकी सम्मति कुछ बने और परम्परा से मिल सके तो शतप्रतिशत सहमति हो जाए । पर यदि न मिल सके तो मुझे लगता है कि दो तिहाई तो सहमति हो पाएगी, एक तिहाई अंश में नहीं ।
उत्तर : यदि हो पाएगी तो पूरी हो पाएगी। नहीं हो पाएगी तो बिल्कुल न. हो पाएगी। क्योंकि चरित्र की जैसी धारणा रही है उस धारणा से मैं