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प्रश्नोत्तर-प्रवचन-११
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मुझसे बिल्कुल भिन्न ले जाए। मैं यह नहीं कहता कि जो मैं कहता हूँ वह आप मान लें। मेरा जोर यह है कि आप भी इस भांति सोचना शुरू करें। हो सकता है सोचकर आप उस जगह पहुंचे जहां मैं कभी आपसे राजी न हूँ या आप मुझसे राजी न हों। लेकिन आप सोचना शुरू करें। जीवन में सोचना शुरू हो, जागना शुरू हो, दमन बन्द हो, अनुगमन बंद हो तब प्रत्येक व्यक्ति को आत्मा मिलनी शुरू होगी और आत्मा प्रत्येक को असाधारण बना देती है। मुझे इससे चिन्ता नहीं कि साधारण आदमी भटक जाएगा क्योंकि मैं मानता हूँ कि साधारण आदमी भटका ही हुआ है। अब उसके और भटकने का कोई उपाय नहीं है। वह क्या भटकेगा और ? उसे हम अगर और भटका दें तो शायद वह ठीक रास्ते पर पहुंच जाए ।
प्रश्न : अब जो आपने कहा, क्या उसका यह अर्थ होगा कि जो लोग आपका विचार पढ़ें या सुनें और उसमें जो जैन श्रावक के व्रतों का, या जैन साधु के व्रतों का पालन कर रहे हों, उन्हें सत्य की प्राप्ति के लिए पहले अपने व्रत छोड़ देने होंगे, तभी कुछ हो पाएगा? यानी सारा जैन समाज, जो श्रावक वर्ग और साधु वर्ग का है, पहले अपने व्रतों को छोड़ दे तभी वह सत्य.को पाएगा। इसी के साथ जुड़ा हुमा यह भी प्रश्न है कि क्या इन अढाई हजार वर्षों में जिन्होंने इन व्रतों का पालन किया, श्रावक या साधु वे सबके सब पाखण्डी थे, उनमें कोई सत्य की सम्भावना नहीं थी।
उत्तर : नहीं, कभी भी सम्भावना नहीं थी।
असल में व्रत पालने वाला कभी भी पाखण्डी होने से नहीं बच सकता है । व्रती पाखण्डी होगा ही । सवाल यह है कि व्रत पकड़ता वही है जो भीतर सोया हुआ है। जो भीतर जग गया है, वह व्रत को नहीं पकड़ता है। व्रत आते हैं उसके जीवन में।
प्रश्न : कोई व्रती पाखंडी न रहा हो, यह सम्भव नहीं क्या ?
उत्तर : नहीं, असम्भव है यह। यह तो ऐसा है जैसे कोई व्यक्ति आँख फोड़ ले और फिर सोचे कि उसे दिखाई पड़ सकता है कि नहीं। मेरी बात समझ लें। मैं यह कहूंगा कि चाहे अढाई हजार साल तक कोई फोड़े आंख, चाहे हजार साल तक फोड़े, आँख फोड़कर दिखाई नहीं पड़ेगा। और आँख फोड़ता ही वही है जिसे दिखाई पड़ने से डर पैदा हो गया है, देखना नहीं चाहता।