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महावीर : मेरी दृष्टि में
से स्याल में आ जाए तो दूसरी बात ख्याल में आ जाएगी कि हमें मम से नहीं पाना है इसे, विधाम में पाना है। तब यह भी समझ में आ जाएगा कि पाने की भाषा ही गलत है। जो पाया ही हुआ है उसका माविष्कार कर लेना है। इसलिए आत्मा उपलब्ध नहीं होता सिर्फ आत्म-आविष्कार होता है। कुछ ढंका हुआ था, उसे उघाड़ लिया है। और ढंका है हमारी खोज करने की प्रवृत्ति से; उका है हमारे और कहीं होने को स्थिति से। हम कहीं और न हों तो उघड़ जाएगा, अपने से उघड़ जाएगा, अभी उघड़ जाएगा। सामायिक न तो कोई क्रिया है, न कोई अभ्यास है, न कोई प्रयत्न है, न कोई साधना है, न कोई साधन है।
में एक छोटी सी घटना से समझा दूं। मुछाला महावीर में पहला शिविर हुमा। राजस्थान की एक वृद्ध महिला भूरबाई भी उस शिविर में आई। उसके साथ उसके कुछ भक्त भी आए। फिर जब भी मैं राजस्थान गया हूँ, निरन्तर प्रतिवर्ष हर जगह भूरबाई माती रही साथ कुछ लोगों को लेकर । सैकड़ों लोग पूजा करते हैं उसकी। सैकड़ों लोग पैर छूते हैं, सैकड़ों लोग उसे मानते हैं। और वह एक निपट साधारण, ग्रामीण स्त्री है। न कुछ बोलती, न कुछ बताती। लेकिन लोग पास बैठते हैं, उठते हैं, सेवा करते हैं और चले जाते हैं। ज्यादा से ज्यादा वह प्रेम करती है लोगों को। उनको खिला देती है, उनकी सेवा कर देती है और उनको बिदा कर देती. है लेकिन फिर भी, सैकड़ों लोग उसको प्रेम करते हैं, उसके पास आते है। तो वह आई। पहले दिन ही सुबह की बैठक में मैंने समझाया कि ध्यान क्या है जैसे अभी आप से कहा कि 'सामायिक' क्या है और कहा कि ध्यान करना नहीं है, 'न करने में दूब जाना है। उस भूरबाई के पास एक व्यक्ति पच्चीस वर्षों से उसकी सेवा करते हैं। वह कभी हाईकोर्ट के वकील थे। फिर सब छोड़ कर वे भूरबाई के दरवाजे पर बैठ गए। उसके कपड़े धोते, उसके पैर दबाते और आनन्दित हैं। वह भी आये थे। जब सांश को सब ध्यान करने भाए तो उन सज्जन ने मुझे आकर कहा कि बड़ी अजीब बात है । भूरबाई को हमने बहुत कहा कि ध्यान करने चलो। वह खूब हंसती है। जब हम उससे बार-बार कहते हैं तो वह कहती है कि तुम जाओ।
और जब हम नहीं माने तो उसने कहा कि तुम जाओ यहाँ से, तुम ध्यान करो। तो उसने मुझे आकर कहा कि मुझे बड़ी हैरानी हुई कि हम आए किसलिए। वह तो आती नहीं कमरे को छोड़ कर । मैं घर माया कि