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महावीर । मेरी दृष्टि में तीन महीने पूरे होने के तीन दिन पहले गुरजिएफ ने दरवाजा खोला। भास्स्की ने लिखा है : उस दिन मैंने पहली बार देखा कि यह आदमी कैसा अद्भुत है । इतना खाली था कि अब मैं नहीं देख सकता था। भरी हुई आँख क्या देखेगी? गुरजिएफ को मैंने पहली बार देखा : ओफ ! यह मामी भोर इसके साथ होने का सौभाग्य ! पहले समझा था कि जैसे और लोग थे वैसा गुरजिएफ था। खाली में पहली बार गुरजिएफ को देखा। बास्स्की ने लिखा है, उस दिन मैंने जाना कि वह कौन है । गुरजिएफ सामने बैठ गया और बोला : भास्स्की ! पहचाना मुझे ! मैंने चारों ओर चौक कर देखा : गुरजिएफ चुप बैठा है । आवाज गुरजिएफ की है। फिर भी मैं चुप रहा । फिर आवाज आई : मास्स्की ! पहचाना नहीं, सुना नहीं। तब मैंने चौंक कर गुरजिएफ की ओर देखा । मैं बिल्कुल चुप बैठा था। मेरे मुंह से कोई शब्द निकल रहा था। तब गुरजिएफ खूब मुस्कराने लगा और फिर कहा : अब शब्द की कोई जरूरत नहीं है । विना शब्द के भी बात हो सकती है। अब तू इतना चुप हो गया कि मैं भीतर सोचूं और तू सुन लेगा क्योंकि जितनी शांति है उतनी सूक्ष्म तरंगे पकड़ी जा सकती हैं।
तुम रास्ते से भागे चले जा रहे हो। तुम्हें किसी ने कहा है। तुम्हारे मकान में आग लग गई है। और मैं रास्ते में तुम्हें मिलता हूँ और कहता हूँ नमस्कार ! तुमने सुना ? तुमने नहीं सुना। तुमने देखा ? तुमने नहीं देखा। तुम भागे चले जा रहे हो। तुम्हारे घर में आग लग गई है। दूसरे दिन तुम मुझे मिलते हो। मैं कहता हूँ रास्ते में मिला था, नमस्कार की थी, तुमने कोई जवाब: नहीं दिया। तुम कहते हो : मैंने देखा ही नहीं। मेरे घर में आग लग गई थी, मैं भागा जा रहा था। मुझे तुम नहीं दिखाई पड़े। न मैंने देखा कि तुमने हाथ जोड़े। न मैं इस हालत में था कि हाथ जोड़ सकता था। अगर मकान में भाग लग गई तो तुम्हारा चित्त इतने जोर से चलता है कि जोड़े गए हाथ दिखेंगे नहीं, किया हुआ नमस्कार सुनाई नहीं पड़ेगा। अगर चित्त का चक्र धीमा हो गया है, ठहर गया है तो जरूरी नहीं कि मैं बोलूं ! इतना ही काफी है कि मैं कुछ चाहूँ कि तुम पर चला जाए, वह एकदम चला जाएगा।
विद्यासागर ने लिखा है कि बंगाल का गवर्नर उन्हें एक पुरस्कार देना चाहता था। विद्यासागर एक गरीब आदमी थे, पुराने ढंग से रहने के आदी थे। वही पुराना बंगाली कुर्ता, पुरानी षोती है। डंडा हाथ में है। मित्रों ने कहा : इस वैष में गवर्नर के दरबार में जाना ठीक नहीं है। हम तुम्हें नए