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महावीर : मेरो दृष्टि में
इस प्रकार सत्य को सात कोणों से देखा जा सकता है, यह महावीर का कहना है और बड़ी अद्भुत बात है। आठवें कोण से नहीं देखा जा सकता। सात सन्तिम कोण है इसलिए सप्त भंग की सात दृष्टियों से सत्य को देखा जा सकता है। ओर जो एक ही दृष्टि का दावा करता है, वह छ: अर्थों में असत्य का दावा करता है क्योंकि छः दृष्टियां वह नहीं कह रहा है। और जो एक ही दृष्टि को कहता है कि यही पूर्ण सत्य है वह जरा अतिशय कर रहा है, सीमा के बाहर जा रहा है । वह इतना ही कहे कि यह एक दृष्टि से सत्य है तो महावीर को किसी से झगड़ा ही नहीं। अगर वह विचार इतना रहे कि 'इस दृष्टि से मैं यह कहता हूँ तो महावीर कहेंगे कि 'इस दृष्टि से यह सत्य है।' लेकिन इससे उल्टा आदमी आ जाए और वह कहे कि 'इस दृष्टि से मैं यह कहता हूँ कि वह असत्य है' तो महावीर उससे कहेंगे तुम भी ठीक कहते हो-इस दृष्टि से यह असत्य है । लेकिन तीन की दृष्टि बहुत पुरानी थी। साफ था कि तीन तरह से सोचा जा सकता है। है, नहीं है, दोनो है-है, नहीं भी है। महावीर ने उसमें चार और दृष्टियां जोड़ी। चौथी दृष्टि ही कीमती है। फिर बाकी तो उसी के ही रूपान्तरण हैं। वह है अनिर्वचनीय को दृष्टि कि कुछ है जो नहीं कहा जा सकता; कुछ है जिसे समझाया नहीं जा सकता, कुछ है जो अव्याख्या है। कुछ है जिसकी कोई व्याख्या नहीं हो सकती है, छोटे से छोटे में और बड़े से बड़े में भी है, वह है कुछ भव्य अस्तित्व जो कि बिल्कुल ही व्याख्या के बाहर है । उसकी हम क्या व्याख्या करें।
अब यह मजे की बात है। उपनिषद् कहते हैं : ब्रह्म की व्याख्या नहीं हो सकती। बाइबिल कहती है : ईश्वर की व्याख्या नहीं हो सकती। लेकिन महावीर कहते हैं ईश्वर ब्रह्म तो बड़ी बातें हैं, घड़े की ही व्याख्या नहीं हो सकती। ईश्वर और ब्रह्म को तो छोड़ दो, घड़े में भी एक तत्त्व है ऐसा 'अस्तित्व जो उतना ही अव्याख्येय है, जितना ब्रह्म। छोटी सी छोटी चीज में वह मौजद है
और अनिर्वचनीय है। इसलिए वह चोषो भंग जोड़ते है कि 'स्यात् अनिर्वचनीय है। लेकिन उसमें भी वह 'स्यात्' लगाते हैं। जो खूबी है महावीर की वह बहुत अद्भुत है । वह ऐसा भी नहीं कहते कि 'अनिर्वचनीय है क्योंकि वह कहते है कि यह भी दावा ज्यादा हो जायगा। इसलिए ऐसा कहो 'स्थात्' । वह जो भी कहते हैं, 'स्यात्' पहले लगा देते हैं। लेकिन 'स्यात्' का मतलब 'शायद' नहीं है । शायद में सन्देह है । महावीर जब कहते कि 'स्यात्' तो उसका मतलब है : 'ऐसा भी हो सकता है, इससे अन्यथा भी हो सकता है । 'स्यात्' शब्द में