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"प्रश्नोत्तर-प्रवचन-६
१६१ शंकर के मायावाद में कि सब जगत् माया है, और महावीर के द्वैतवाद मेंक्योंकि महावीर जगत् को माया नहीं कहते हैं-क्या फर्क है ?
इसमें बहुत बातें समझनी होंगो। पहली बात यह कि स्वप्न भी असत्य नहीं है । स्वप्न का भी अस्तित्व है। जब आप सपना देखते हैं तो आप सुबह जाग कर कहते हैं कि 'सब सपना था, कुछ भी न था।' लेकिन जो न हो तो सपने तक भी नहीं हो सकता है। स्वप्न के बाबत बड़ी भ्रान्ति है। स्वप्न असत्य नहीं है । स्वप्न की अपनी तरह की सत्ता है, अपने तरह का सत्य है उसमें । वह सूक्ष्म मानस परमाणुओं का लोक है; तरल परमाणुओं का लोक है । असत्य नहीं है । असत्य का मतलब होता है जो है ही नहीं। तो तीन चीजें हैं । असत्य, जो है ही नहीं। सत्य, जो है। और इन दोनों के बीच में एक स्वप्न है जो न तो इन अर्थों में नहीं है जिन अर्थों में खरगोश के सींग या बांझ मां का बेटा। और न इन अर्थों में है जैसे पहाड़। जो दोनों के बीच है, जो हो भी किसी सूक्ष्म अर्थ में, और जो न भी हो किसी सूक्ष्म अर्थ में। शंकर का भी 'माया' से यही मतलब है। शंकर कहते हैं तीन यथार्थ है-सत्, असत् और माया। माया को मिथ्या कहिए तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन मिथ्या से लोगों को ख्याल होता है कि जो नहीं है। एक तो ऐसी चीज है जो है ही नहीं और एक ऐसी चीज है, जो बिल्कुल है। और, एक ऐसी चीज है, जो दोनों के बीच में है, जिसमें दोनों के गुण मिलते हैं।
स्वप्न असत्य नहीं है। हाँ, जागरण-जैसा वह सत्य नहीं है। स्वप्न का अपना सत्य है । और अगर स्वप्न के सत्य की खोज में कोई जाए तो जितना सत्य उसे बाहर की दुनिया में मिल सकता है, उतना ही सत्य वहाँ भी मिल सकता है। लेकिन हम तो बाहर की दुनिया में ही नहीं जा पाते, स्वप्न की दुनिया में जाना तो बहुत मुश्किल है। क्योंकि बिल्कुल छायाओं का लोक है वह जहाँ अत्यन्त तरल चीजें हैं जिनको मुट्ठी में बांधना मुश्किल है। स्वप्न में भी खोज की जा सकती है, और होती रही है। जो लोग स्वप्न-लोक की गहराइयों में गए हैं वे बहुत हैरान हो गए हैं कि जिसको हम स्वप्न कहते हैं वह बहुत गहरे अर्थों में हमारे सत्य लोक से जुड़ा है। बहुत से स्वप्न हमारे पिछले जन्मों की स्मृतियां हैं। बहुत से स्वप्न हमारे भविष्य की झलक हैं बहुत से स्वप्न हमारी अन्तर्यात्राएं हैं मनोजगत् में, जिनका हमें पता नहीं चलता क्योंकि इस देह से वे यात्राएं नहीं होतीं, सूक्ष्म देहों से होती है।