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परलोत्तर-प्रवचन-६
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में लग गया है तो कुछ न होगा; क्रूरता को दया बनाने में लग गया है तो भी कुछ न होगा क्योंकि वह व्यक्ति केवल क्रिया को बदल रहा है और उसके भीतर की चेतना वैसी की वैसी अमूच्छित बनी है और कई बार उल्टा भी हो जाता है । उल्टे का मतलब यह कि कई बार लोहे को जंजीर हो ठोक है क्योंकि उसे तोड़ने का मन भी करता है। और सोने की जंजीर गलत है क्योंकि उसे संभालने का मन करता है। क्योंकि सोने की जंजीर को जंजीर समझना मुश्किल है। सोने को जंजोर को आभूषण समझना आसान है। इसलिए पापी भी कई बार जागने के लिए आतुर हो जाता है। और जिसे हम साधु कहते हैं, वह जागने के लिए आतुर नहीं होता। फर्क ऐसा हो है जैसे कोई आदमी दुखद स्वप्न देख रहा है और एक आदमी सुखद स्वप्न देख रहा है लेकिन मुखद स्वप्न देखने वाला जागना नहीं चाहता। वह चाहता है कि थोड़ी देर और सोलूं। सपना बहुत सुखद है, कोई तोड़ न दे। और थोड़ी देर सोलूं। लेकिन दुखद स्वप्नवाला, ( दुःस्वप्न ) वाला, एकदम जाग जाता है हड़बड़ा कर । पापी दुखद म्वप्न देख रहा है। पुण्यात्मा सुखद स्वप्न देख रहा है। इसलिए बहुत बार डर है कि पापी जाग जाए, पुण्यात्मा रह जाए। मैं यह कहता है कि इसकी फिक्र ही मत करना कि पाप को कैसा पुण्य बनाएँ, असंयम को कैसे संयम बनाएँ, हिंसा को कैसे अहिंसा बनाएँ, कठोरता को कैसे दया बनाएँ। इस चक्कर में ही मत पड़ना । सवाल यह है ही नहीं कि हम क्रिया को कैसे बदले। सवाल यह है कि कर्ता कैसे बदले ? अगर कर्ता बदल जाता है तो क्रिया भी बदल जाती है। क्योंकि तब व्यक्ति किसी क्रिया के करने में असमर्थ और किसी क्रिया के करने में समर्थ हो जाता है। भीतर से कर्ता बदला, चेतना बदली।
तो मैं कहता हूँ कि पाप वह है जो सजग व्यक्ति नहीं कर सकता है और पुण्य वह है जो जागे हुए व्यक्ति को करना ही पड़ता है। इसलिए ऐसे भी पुण्य हैं जो किए हुए पाप हैं क्योंकि आदमी ही सोया हुआ है । दिखता पुण्य है, वह होगा पाप ही क्योंकि आदमी ही सोया हुआ है। सोया हुआ आदमी केसे पुण्य कर सकता है ? इसलिए पुण्य दिखाई पड़ेगा, भीतर पाप छिपा होगा। और ऐसा भी सम्भव है कि जागा हुमा व्यक्ति कुछ ऐसे काम करे जो आपको पाप लगें मगर वे पार न हों। क्योंकि जागा हुमा व्यक्ति पाप कर ही नहीं सकता। इसलिए दोनों तरह की भूलें सम्भव है।
कबीर को एक रात ऐसा हुआ। कलीर थोड़े से जागे हुए लोगों में से एक हैं । रोज लोग आते हैं कबीर के घर सुबह, भजन-कीर्तन चलता है, कबीर के