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महावीर : मेरी दृष्टि में हो सकती । लेकिन महावीर जैसी चेतना कुछ भी छोड़ती नहीं है क्योंकि उस तल पर कुछ भी पकड़ने का भाव नहीं रह जाता है। जो पकड़ते हैं, वे छोड़ भी. सकते हैं । जो पकड़ते ही नहीं, जिनकी कोई पकड़ नहीं है, उनके छोड़ने का कोई सवाल ही नहीं।
महावीर वे कुछ भी नहीं त्यागा है, जो व्यर्थ है उसके बीच से वह आगे बढ़ गए हैं। लेकिन हम सबको दिखाई पड़ेगा कि बहुत बड़ा त्याग हुआ है। और, ऐसा दिखाई पड़ने में हम पकड़ने वाले चित्त के परिग्रही लोग हैं, यही सिद्ध होगा; और कुछ सिद्ध न होगा। महावीर त्यागी थे, ऐसा तो नहीं है । लेकिन महावीर को जिन लोगों ने देखा वह भोगी थे-इतना सुनिश्चित है। भोगी के मन में त्याग का बड़ा मूल्य है । उल्टी चीजों का ही मूल्य होता है। बीमार मादमी के मन में स्वास्थ्य का बड़ा मूल्य है। स्वस्थ आदमी को पता भी नहीं चलता । बुद्धिहीन के मन में बुद्धिमत्ता मूल्यवान् है; लेकिन बुद्धिमान् को कभी पता भी नहीं चलता। जो हमारे पास नहीं है उसका ही हमें बोष होता है । और जो हम पकड़ना चाहते हैं, उसे कोई दूसरा छोड़ता हो तो भी हम आश्चर्य से चकित रह जाते हैं। लेकिन यहां मैं महावीर के भीतर से चीजों को कहना चाहता है। महावीर कुछ भी नहीं छोड़ गए हैं। और, जो व्यक्ति कुछ छोड़ता है, छोड़ने के बाद उसके पीछे छोड़ने की पकड़ शेष रह जाती है। जैसे एक आदमी लाख रुपये छोड़ दे। लाख रुपये छोड़ देगा; लेकिन लाख रुपये मैंने. छोड़े, यह पकड़ पीछे शेष रह जाएगी। यानी भोगी चित्त त्याग को भी भोग का ही उपकरण बनाता है। भोगी चित्त धन को ही नहीं पकड़ता, त्याग को भी पकड़ लेता है । असल सवाल तो पकड़ने वाले चित्त का है। वह अगर सब कुछ त्याग कर दे तो वह इस सबका हिसाब-किताब रख लेगा अपने मन में कि क्याक्या मैंने त्यागा है; कितना मैंने त्यागा है। ऐसे त्याग का कोई मूल्य नहीं। यह भोग का ही दूसरा रूप है, परिग्रह का हो दूसरा रूप है। लेकिन एक और तरह का त्याग है जहाँ चीजें छूट जाती हैं क्योंकि चीजों को पकड़ने से हमारे भीतर की कोई तृप्ति नहीं होती; बल्कि चीजों को पकड़ने से हमारे भीतर का विकास अवरुद्ध होता है।
__हम चीजें पकड़ते क्यों हैं ? चीजों को पकड़ने का कारण क्या है ? हम चीजों को पकड़ते हैं क्योंकि चीजों के बिना एक असुरक्षा मालूम पड़ती है। अगर मेरा कोई भी मकान नहीं है तो मैं असुरक्षित है; किसी दिन सड़क पर