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प्रश्नोत्तर-प्रवचन-४
यानी मामला ऐसा है जैसे पागलखाना है एक। पागलों के लिए कुछ नियम बनाने पड़ेंगे । और नियम बनाने वाले भी पागल हैं । तो नियम और भी बतरनाक हैं क्योंकि पागल नियम बनायेंगे, और पागलों के लिए। एक तो पागल हो खतरनाक है, फिर पागल नियम बनायें तो और बहुत खतरा शुरू हो जाता है। तो समाज ऐसे ही खतरे में जी रहा है और जब हम कहते हैं कि वीतरागता को तरफ जाना है तो हम यह नहीं कहते कि नियम तोड़ देना है । हम यह नहीं कह रहे । मैं तो यह कह रहा हूँ कि जो व्यक्ति थोड़ी सी भी वीतरामता में गया उसके लिए नियम आवश्यक है। यानी वह जीता ऐसे है कि उससे किसी को दुख, पीड़ा यह सब सवाल ही नहीं है। हाँ कोई उससे दुख लेना चाहे तो बात ही अलग है, उसकी मुक्ति है उससे । महावीर ऐसे जीते हैं कि उनके लिए दुख सुख का सवाल ही नहीं मगर कोई दुख सुख लेना चाहता है तो लेता है। लेकिन पूरा जिम्मा लेने वाले पर ही है। महावीर का देने का कोई हाथ नहीं उसमें, जरा भी कोई दुख लेगा, कोई सुख देगा। वह उस लेने वाले पर निर्भर है। महावीर तो जैसे जीते हैं, जोते हैं । जितना वोतराग चित्त होगा उतना विवेक पूरा होगा। पूर्ण बीत
रागता, पूर्ण विवेक । और वीतरामता के लिए किसी संयम की जरूरत नहीं, किसी नियम की जरूरत नहीं क्योंकि विवेक स्वयं ही संयम है। अविवेक के लिए संयम की जरूरत होती है। इसलिए सब संयमी अविवेकी होते हैं । जितनी बुद्धिहीनता होती है, उतना संयम बांधना पड़ता है । यानी बुद्धि की कमी को वे संयम से पूरा करने की कोशिश करते हैं लेकिन बुद्धि की कमी संयम से पूरी नहीं होती।
अव तक जो हमने समाज बनाया है वह बुद्धि की कमी को संयम से पूरा करने की कोशिश कर रहा है। इसलिए हजारों साल हो गए कोई फर्क नहीं पड़ा । तुम पूछ सकते हो कि अगर हम नियम तोड़ दें तो समाज ही टूट जाएगा मगर यह मैं नहीं कह रहा हूँ। यह वैसी ही बात है जैसे पागलखाने के लोग कहें कि अगर हम ठीक हो जाएंगे तो पागल खाने का क्या होगा ? फिर पागल खाना टूट जाएगा। अगर लोग विवेकपूर्वक हो जाएं तो समाज नहीं होगा जैसा हम समाज समझते रहे हैं। बिल्कुल बुनियादी फर्क हो जाएंगे। लेकिन पहली दफा ठोक अर्थों में समाज होगा। अभी क्या है-समाज है, व्यक्ति नहीं । और समाज सब व्यक्तियों को अपने घेरे में कसे हुए है। और समाज केवल व्यवस्था