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महाबीर : मेरी दृष्टि में
फैलेगा । एक शिक्षक पर्याप्त होता है। एक शिक्षक यदि काम कर रहा है तो दूसरा शिक्षक अगर होने की स्थिति में भी है तो भी नहीं होता । उसकी कोई जरूरत नहीं होती । करुणा पीछे भी काम कर सकती | ओर पीछे भी सम्बन्ध स्थापित किए जा सकते हैं ।
चीन के हाथ में तिब्बत के चले जाने से जो बड़े से बड़ा नुकसान हुआ वह भौतिक अर्थों में नहीं नापा जा सकता। सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ है कि बुद्ध से तिब्बत के लामाओं का प्रति वर्ष एक दिन निकट सम्पर्क स्थापित होता रहा था । उस परम्परा को घात पहुँच गया । प्रतिवर्ष बुद्ध पूर्णिमा के दिन पाँच सो विशिष्ट भिक्षु और लामा एक विशेष पर्वत पर मानसरोवर के निकट उपस्थित होते थे । यह अत्यन्त गुप्त व्यवस्था थी। ठीक पूर्णिमा की रात, ठीक समय पर बुद्ध का साक्षात्कार पाँच सौ व्यक्तियों को निरन्तर हजारों वर्षों से होता रहा । और इसलिए तिब्बत का बौद्ध भिक्षु जितना जीवन्त, जितना गहरा था उतना दुनिया का कोई बौद्ध भिक्षु नहीं था क्योंकि और किसी के जीवित सम्पर्क नहीं थे बुद्ध से । एक वर्ष की शर्त पूरी होती रही थी निरन्तर बुद्ध पूर्णिमा के दिन और इन दिनों को मनाने का कारण भी यह है कि इन दिनों का सम्पर्क आसानी से स्थापित हो सकता है। वे दिन उस चेतना की स्मृति में भी महत्त्वपूर्ण दिन
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हैं । और उन महत्त्वपूर्ण दिनों में ज्यादा कररणा विगलित हो सकती हैं और वह भी 'आतुर हो सकती है कि किसी धारा से सम्बन्धित हो जाए। ऐसा नहीं कि ठीक पांच सौ भिक्षुओं के समक्ष बुद्ध अपने पूरे रूप में ही प्रकट होते रहे । किन्तु यह भी सम्भव है । क्योंकि हमारा यह शरीर गिर जाता है इससे ही ऐसा मत मान लेना कि हमारे सब शरीर होने की सम्भावना मिट जाती है । सूक्ष्म शरीर कभी भी रूपाकार ले सकता है । और अगर बहुत से लोग आकांक्षा करें तो सूक्ष्म शरीर के रूपाकार लेने में कोई कठिनाई नहीं । ऐसा होगा सूक्ष्म शरीर कि अगर तलवार उसमें से निकालो तो तलवार निकल जाएगी कुछ कटेगा नहीं । अत्यन्त सूक्ष्म अणुओं का बना हुआ शरीर होगा । मनो-अणुओं का ही कहना चाहिए। अब तक विज्ञान पहुँच सका है जिन अणुओं तक वे भौतिक अणु हैं । लेकिन जिन्होंने सूक्ष्म आन्तरिक जीवन में खोज की है उन्होंने उन अणुओं की भी खबर दी है जिन्हें मनो-अणु कहना चाहिए - 'मनो अणुओं' की भी एक देह है। यह मनोकाया जैसी चीज भी है। अगर बहुत लोग आकांक्षा से और एकाग्रचित होकर प्रार्थना करें और करुणा शेष रह गई हो किसी चेतना में जो शरीर नहीं पकड़ सकती है तो वह 'मनोदेह' में प्रकट हो सकती है ।