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ॐ समतायोग का मार्ग : मोक्ष की मंजिल
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के बिना स्थायीरूप से कोई भी समस्या हल नहीं हो सकी। इसलिए साधारण मानव के जीवन से लेकर थावक-जीवन में, साधु-जीवन में और उच्च कोटि के निर्ग्रन्थ-जीवन में पद-पद पर समतायोगी की आवश्यकता है।
समतायोग के विना य यव व्यर्थ हैं 'नियमसार' में स्पष्ट कहा गया है-"जो श्रमण समता में हित है. उसका वनवास, कायक्लेश, विचित्र उपवासादि तप, शास्त्रों का अध्ययन तथा मौन आदि क्या कर सकते हैं, समतायोग के विना ये संव व्यर्थ हैं, अकिंचिकर हैं।"
सामायिक की शुद्ध साधना कब और कै ? __ सामायिक या समतायोग की शुद्ध साधना तभी हो सकती है, जव सामायिक के व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ के अनुरूप आत्म-स्थिति हो___ "समय का अर्थ है-आत्मा; आत्मा के साथ एकीभूत होकर रहना समाय है, समाय जिसका प्रयोजन हो, वह सामायिक है।' 'ज्ञानार्णव के अनुसार-"समता (साम्य) में उच्च स्थिति तभी होती है. जब यह आत्मा म्वयं को समस्त पर-द्रव्यों व उनकी समस्त पर्यायों से भिन्न (विलक्षण) स्वरूप निश्चय करता है।" वस्तुतः आत्मा (म्वरूप) में स्थिरता (स्थितप्रज्ञता) तभी आती है, जव समतायोग जीवन में ओतप्रोत हो जाये।
‘प्रवचनसार' में समत्व की परिभाषा दी गई है-“आत्मा का मोह और क्षोभ से रहित विशुद्ध परिणाम ही समत्व है।" "इस दृष्टि से जो श्रमण सुख और दुःख में समयोग रखता है, वही शुद्धोपयोगी (समतायोगी) है।” आत्मा में ऐसी स्थिरता (म्वरूपस्थिति) तभी आती है, जब समतायोग जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में ओतप्रोत हो जाता है।
आत्म-स्थिरतारूप समतायोग के अभाव में . ऐसे आत्म-स्थिरतारूप समतायोग के अभाव में मनुष्य अपने पर आ पड़े हुए संकट, चिन्ता, शोक, दुःख, विपत्ति एवं अभावजनित कष्ट तथा मानसिक संक्लेश
१. (क) किं काहदि वणवासो, कायकिलेसो विचित्त उववासो।
अज्झयण-मोण-पहुदी. समदा-हियम्म ममणम्स॥ -नियमसार १२४ पा. (ख) समयः आत्मा, तेन सहेकीभूतेन वर्तनं समायः. तत्प्रयोजनं यम्य तत्सामायिकम्। (ग) अशेष-परपर्यायैरन्यद्रव्यैर्विलक्षणम्। निश्चिनोति यदात्मानं तदा साम्ये तिर्भवेत्॥
-ज्ञानार्णव (घ) मोहक्खोहविहीणो, परिणामो अप्पणो हु समो।
-प्रवचनसार १/७ (ङ) समणो समसुहदुक्खो, भणिदो सुद्धोवओगोति।
-वही १/१४
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