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* समतायोग का मार्ग : मोक्ष की मंजिल * २१ ॐ
या सत्ताधीनता मिले, शत्रु हो या मित्र, विरोधी हो या अविरोधी, सम्पन्नता मिले या विपन्नता, इन या ऐसे परस्पर विरोधी प्रसंगों में यदि समता, मानसिक सन्तुलन, साम्ययोग या समभाव न हो तो सर्वत्र अशान्ति ही अशान्ति दृष्टिगोचर होगी। जहाँ भी जातिगत, सम्प्रदायगत, समाजगत, परिवारगत, राष्ट्रगत, प्रान्तगत वैषम्य होगा, पक्षपात और भेदभाव होगा, वहाँ कलह, संघर्ष, युद्ध और वैमनस्य से विषमता
और अशान्ति की चिनगारियाँ ही फूटेंगी। शान्ति के लिए तो समतायोग का ही आश्रय लेना पड़ेगा। जहाँ-जहाँ जिस-जिस व्यक्ति या वस्तु के प्रति अहंत्व-ममत्व होगा, वहाँ-वहाँ विषमता और अशान्ति ही बढ़ेगी, कर्मबन्धन ही होगा, अतः उस विषमता, शारीरिक-मानसिक अशान्ति और असमाधि को मिटाने या रोकने का सर्वोत्तम उपाय समतायोग ही है।
समता के बिना जप, तप, क्रियाकाण्ड आदि अकिंचित्कर धार्मिक जगत् में भी कई लोग उत्कट बाह्यतप, त्याग, प्रत्याख्यान करते हैं, विविध कष्टों और परीषहों को भी सह लेते हैं, व्यवसाय-वृद्धि, पद, प्रतिष्ठा, धन और सत्ता की प्राप्ति के लिए भयंकर से भयंकर कष्ट, संकट भी सह लेते हैं। साधुवर्ग या श्रावकवर्ग व्रत नियम भी ग्रहण कर लेते हैं, स्थूल क्रियाकाण्डों के रूप में व्यवहारचारित्र का भी पालन कर लेते हैं, जप भी प्रचुर संख्या में कर लेते हैं, किन्तु जब तक जीवन में समभाव नहीं आता, तब तक राग, द्वेष, मोह और क्रोधादि कषाय और नोकषाय उपशान्त, क्षीण या मन्द नहीं होते। इसीलिए एक आचार्य ने कहा है-“उस तीव्र तप से क्या होगा या अधिकाधिक जप से भी क्या होगा अथवा व्यवहारचारित्र के पालन से भी क्या होगा, जब तक उसके साथ समताभाव नहीं हो? क्योंकि समता के बिना न तो कभी मोक्ष (सर्वकर्ममुक्तिरूप) हुआ है, न ही किसी अन्य प्रकार से होता है।"
समता से श्रमण और श्रमणोपासक होता है आशय यह है कि जब तक साधु-जीवन में या श्रावक-जीवन में समभाव नहीं आता हैं, तब तक बाह्यतप, जप, क्रियाकाण्ड या बाह्यत्याग-प्रत्याख्यान से कर्मक्षय में सफलता नहीं मिलती। इसीलिए 'उत्तराध्ययनसूत्र' में कहा है-मुण्डित होने मात्र से श्रमण नहीं होता, समता से ही श्रमण होता है।
१. किं तवेण तिव्वेण, किं च जपेण किं चरित्तेण।
समयाइ विण मोक्खो न हुओ, कहा वि न हु होई॥ २. (क) नवि मुण्डिएण समणो।
-उत्तराध्ययन, अ. २५, गा. ३१ (ख) समयाए समणो होई।
-वही, अ. २५, गा. ३२ (ग) सामाइयम्मि कए समणो इव सावओ हवइ तम्हा। -विशेषावश्यक भाष्य, गा. २९९०
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