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* समतायोग का मार्ग : मोक्ष की मंजिल * १९ *
. जैन-कर्मविज्ञान में विनाशी के साथ जुड़ने को-सम्बन्ध स्थापित करने को 'योग' कहा है। योग के मुख्यतया तीन प्रकार हैं-मन, वचन और काया। इसके विपरीत अविनाशी के साथ जुड़ने या केवल प्रेर्य-प्रेरकभाव से सम्बन्धित होने को पातंजल योगदर्शन ने तथा जैनयोग के आचार्यों ने योग कहा है।
समतायोग आत्मा को परमात्मा से या मोक्ष से जोड़ता है समतायोग में योग शब्द समता के माध्यम से आत्मा को परमात्मा से, परमात्मपद से, सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्षलक्ष्य से जोड़ता है-मिलाता है। समतायोग आत्मा को परमात्मा से अथवा आत्मा को अपने शुद्ध स्वरूप से मिलाने या मोक्षलक्ष्य को प्राप्त कराने वाला है। वह आत्मा को परमात्मपद तक, कर्मयुक्त आत्मा को सर्वकर्ममुक्ति तक पहुँचने के मार्ग में जो भी विघ्न-बाधाएँ, उतार-चढ़ाव, विरोध-अवरोध आते हैं, उन्हें दूर कराने में पथ-प्रदर्शक (गाइड) है। इसीलिए 'भगवद्गीता' में-"समत्त्वं योग उच्यते।"-समताबुद्धि को योग कहा गया है।'
संमतायोग से ही शान्ति, विरक्ति, सहिष्णुता एवं सर्वकर्ममुक्ति समतायोग जीवन के सभी क्षेत्रों (परिवार, समाज, जाति, प्रान्त, सम्प्रदाय, मत, राष्ट्र, पन्थ आदि सभी क्षेत्रों) में शान्ति, सहिष्णुता, कषाय-उपशान्ति, विषय भोगेच्छा से विरक्ति लाता है। आध्यात्मिक क्षेत्र में समता आ जाने पर व्यक्ति स्वेच्छा से प्राणिमात्र के प्रति समभाव तथा सांसारिक विषयभोगों के प्रति अनासक्ति, विरक्ति आदि रखता है।
समतायोग के अभाव में दुःख, पीड़ा, असन्तोष, अशान्ति समतायोग के अभाव में व्यक्ति के पास प्रचुर धन, साधन, बल, बुद्धि, विद्या, वैभव आदि होते हुए भी दूसरों के प्रति ईर्ष्या, द्वेष, मात्सर्य तथा मद, अहंकार, ममता, आसक्ति आदि के कारण दुःखी, बेचैन और अशान्त होता रहता है। एक व्यक्ति किसी वस्तु के अभाव के कारण दुःखित-पीड़ित होता रहता है, जबकि दूसरा व्यक्ति प्रचुर मात्रा में वस्तु के होने पर भी असन्तुष्ट और दुःखी होता है। यह सब होता है, समतायोग के अभाव में। आज अधिकांश लोगों की शिकायत है कि परिवार, समाज, प्रान्त, राष्ट्र, धर्म-सम्प्रदाय आदि सभी क्षेत्रों में संघर्ष, चिन्ता, तनाव, असन्तोष, रोग, क्लेश, द्वेष, मोह, राग, परेशानी आदि का दौर है। जीवन के सभी क्षेत्रों में व्याप्त इस वैषम्यविष को मिटाने का एकमात्र उपाय है-समतायोग।
१. (क) 'समतायोग' से भाव ग्रहण, पृ. ६
(ख) भगवद्गीता, अ. २, श्लो. ४८
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