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* २२ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ *
समतायोग का अभ्यास न होने पर फलाकांक्षा दोष आ सकता है ___ मान लीजिए, एक गृहस्थ ने श्रावक के पाँच अणुव्रत और तीन गुणव्रतं अंगीकार कर लिये, साधु-साध्वियों की प्रेरणा से अमुक त्याग, तप, जप, व्रत नियम आदि भी कर लिये, सामायिक के पाठों का उच्चारण करके सामायिकधारी के वेष में भी बैठ गया, किन्तु समतायोग (सामायिक) के तत्त्व, प्रयोजन विधि, सावधानी
और रहस्यार्थ से अनभिज्ञ होने के कारण तथा भेदविज्ञान का या आत्मा-अनात्मा का विवेक न होने के कारण वह अपने त्याग, तप, जप आदि के साथ इहलोक-परलोक में सुख-प्राप्ति, भोग-प्राप्ति या अमुक साधन-प्राप्ति की सौदेबाजी (निदान. = फलाकांक्षा) कर बैठता है अथवा जिसने समतायोग का न तो प्रशिक्षण लिया है और न जीवन-व्यवहार में उसका अभ्यास किया है, ऐसी स्थिति में जब उसके सामने सांसारिक उलझनें, चिन्ताएँ, झंझटें और मुसीबतें उपस्थित होती हैं, तब वह मानसिक सन्तुलन खो बैठेगा अथवा मन में तरह-तरह के कुविचारों, आर्तध्यान
और रौद्रध्यान के भूचाल अथवा. निमित्तों पर दोषारोपण करने के कुतर्क उठेंगे अथवा जीवन में अटपटे प्रश्न उपस्थित होने पर वह शान्ति, धैर्य और सन्तुलन खो बैठेगा, समता का जीवन-व्यवहार में उपयोग न करके वह या तो देवी-देवों की मनौती करने दौड़ता है अथवा साधु-सन्तों के पास मंत्र, तंत्र, यंत्र एवं जाप आदि प्राप्त करने जाता है, किन्तु समतायोग का अभ्यास न होने के कारण बात-बात में नये-नये कर्मबन्धन करता रहता है। तथैव त्याग, नियम या क्रियाकाण्डों के साथ अहंकार-प्रदर्शन, दूसरों के प्रति तिरस्कारभाव अथवा इहलौकिक-पारलौकिक फलासक्ति का विष उस साधक की की-कराई साधना को चौपट कर सकता है। ___समतायोग के अभाव में बार-बार समस्याएँ आने पर जीव कर्मों से संश्लिष्ट हो सकता है। वह कर्मों का भारी जत्था आत्मा से चिपका लेता है, जिसका दुष्फल भविष्य में उसी जीव को भोगना पड़ता है। प्रश्न होता है-जीव और कर्मों के परस्पर श्लिष्ट हो जाने पर क्या कोई ऐसा सफल उपाय है, जो इन दोनों को पृथक्-पृथक् कर सके ? एक आचार्य ने समतायोगरूप सामायिक को इसका अचूक उपाय बताते हुए कहा है-“जिसे आत्मा का परिज्ञान और उसका निश्चय दृढ़ हो गया है, वह साधक समतायोगरूप सामायिक की सलाई से परस्पर संश्लिष्ट (चिपके हुए) जीव और कर्म को पृथक्-पृथक् कर लेता है।" समतायोग के बिना स्थायीरूप से कोई भी समस्या हल नहीं हो सकती
निष्कर्ष यह है कि समस्या चाहे पारिवारिक हो, आर्थिक हो, सामाजिक हो, राजनैतिक हो, सांस्कृतिक हो या सामाजिक, लौकिक हो या लोकोत्तर, समतायोग
१. कर्म जीवं च संश्लिष्टं परिज्ञातात्म-विनिश्चयः।
विभिन्नीकुरुते साधुः सामायिकशलाकया।
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