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समतायोग का मार्ग:मोक्ष की मंजिल
अध्यात्मयात्री की रीति-नीति सच्चा यात्री सुख-दुःख, लाभ-अलाभ, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा तथा सम्मान-अपमान इत्यादि द्वन्द्वों को जान-देखकर इनमें उलझकर नहीं वैट जाता। इसी प्रकार उसके मार्ग में पड़ने वाले अनुकूल-प्रतिकूल संयोगों, मनचाही-अनचाही परिस्थितियों, भयों और प्रलोभनों के दृश्यों से भी हर्प-शोक में ग्रस्त नहीं होता, अपनी यात्रा को ठप्प नहीं करता। वह भयों से घवगकर या प्रलोभनों से आकर्पित होकर नहीं ठिठकता अथवा मार्ग में मिलने वाले टगों, लुटेगें या जेवकटों से भी असावधान नहीं रहता। न ही गस्ते की कटिनाइयों और असुविधाओं को देखकर निगश होकर वापस मुड़ता या लौटता है, न ही पस्तहिम्मत होकर मार्ग में ही पड़ाव डालकर बैठ जाता है। अपितु अपना आत्म-वल, प्राण-वल, साहस और परिपूर्ण आत्म-विश्वास वटोग्कर समभावपूर्वक उनका सामना करता है। वह विषमता बढ़ाने वाले द्वन्द्वों, संयोगों और पििथतियों के सामने घुटने नहीं टेकता, बल्कि तीव्र मनोवल के साथ उनको पगरत करके अपनी यात्रा आगे बढ़ाता है और एक दिन अपनी मंजिल तक पहुँच जाता है।'
अध्यात्मयात्री मोहजाल में नहीं फँसता - ठीक यही वात अध्यात्मयात्री के सम्बन्ध में समझिये। अध्यात्मयात्री भी अपनी अध्यात्मयात्रा प्रारम्भ करता है, तब सुख-दुःख. लाभ-अलाभ आदि द्वन्द्वों का जाल गम्ते में विछा रहता है: काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्पर ईर्ष्या, द्वेप आदि ठग तथा लुटेरे भी उसे लूटने या ठगने की टोह में रहते हैं। संयोग या परिस्थितियाँ भी उसको मोक्ष की मंजिल तक पहुँचने में वाधक या प्रलोभक वनकर खड़ी रहती हैं। भय और प्रलोभन भी उसे रुकने को वाध्य करते हैं। यदि अध्यात्मयात्री वाहोश और जाग्रत न हो तो उसके वाहन-शर्गर. मन. द्धि या इन्द्रियाँ आदि भौतिक उपकरण भी उसके सहयोगी न बनकर उसे कपायों या गग-द्वंपादि विकारों की आर प्रवल रूप से प्रेरित कर सकते हैं अथवा शर्गगदि प्रायः उसकी अध्यात्मयात्रा
१. 'समतायोग' से भाव ग्रहण. पृ. ५
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