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निर्जरा का मुख्य कारण : सुख-दुःख में समभाव 8 १५
कर्तव्य और दायित्व का निर्वाह करना मानता हूँ। कुछ वर्षों बाद जब वह व्यापारी आया तो उसने देखा कि अब वह भूतपूर्व दास 'राजा' बन गया है। एक खास युद्ध में उसने राजा को काफी सहायता पहुँचाई, जिसके कारण उस राजा ने उसे अपना दामाद और उत्तराधिकारी बना दिया है।'' व्यापारी ने आश्चर्यचकित होकर उस राजा बने हुए भूतपूर्व दास से पूछा-"क्यों, अब तो सुखी हो गए न?" राजा वने हुए उस भूतपूर्व दास ने अपना वही पहले वाला उत्तर दोहरा दिया।
पुण्योपार्जन के साथ-साथ निर्जरा कैसे ? निष्कर्ष यह है कि इस सत्य घटना में अंकित व्यक्ति की तरह यदि कोई व्यक्ति निःस्वार्थ एवं निःस्पृहभाव से परोपकारार्थ सुख और दुःख की स्थिति में समभाव रखता है तो पुण्य-उपार्जन करने के साथ-साथ निर्जरा भी कर सकता है। शर्त यही है कि महापुरुषों एवं अरिहन्तों-सिद्धों का आदर्श सामने रखकर निःस्वार्थनिष्कामभाव से सुख और दुःख दोनों परिस्थितियों में समत्व में डटा रहे, स्थितप्रज्ञ (स्थितात्मा) बनकर रहे। उसमें किसी प्रकार की नामना-कामना, प्रसिद्धि, प्रशंसा या कीर्ति की भावना न हो। यही धर्मकला है-संवर-निर्जरारूप मोक्षमार्ग (कर्ममुक्तिपथ) की कला है।
दुःख में दैन्य न हो, सुख में गर्व न हो, यही समभावी का लक्षण ___ कुछ लोगों का यह तर्क है कि समस्त जीव, यहाँ तक कि मनुष्य और उसमें भी निर्ग्रन्थ मुनि, स्थविरकल्पी साधु-साध्वीवर्ग भी पूर्वकृत कर्मों के अधीन हैं। हालांकि शुभ-अशुभ कर्म जीव के द्वारा स्वयं ही बाँधे हुए हैं, ऐसी स्थिति में वह जब अशुभ कर्म के उदय से रोग, विपत्ति आदि के रूप में दुःख पाता है, उस समय वेदना से तड़फ उठता है, दुःखी हो जाता है, तथैव शुभ कर्मोदय से सुख की स्थिति में सुख-प्राप्ति से मन में हर्षित एवं गर्वित हो उठता है, ऐसी स्थिति में साधुवर्ग भी. प्रायः समभाव में स्थित नहीं रह पाता है, अन्य सामान्य गृहस्थ की बात ही क्या है ? इसका युक्तिसंगत समाधान करते हुए एक आचार्य कहते हैं
_“दुःखं प्राप्य न दीनः स्यात्, सुखं प्राप्य न विस्मितः।
मुनिः कर्मविपाकस्य जानन् परवशं जगत्॥" -सारा जगत् कर्मविपाक के अधीन है, यह जानकर समता-साधक मुनि दुःख को पाकर दीन न हो और सुख को पाकर विस्मित न हो। वह समभाव में डटा रहे।
कर्मपरवश जीव सत्पुरुषार्थ से आत्मा स्वतंत्र हो सकती है आशय यह है कि जगत् के सभी जीव कर्मपरवश हैं, यह जानकर भी आत्मा अपनी प्रबल शक्ति से अप्रमत्त और समभावस्थ रहकर स्वतंत्र रह सकती है। वह न
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