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साहित्य-समाज और जैन संस्कृत महाकाव्य
४. राष्ट्रयुग-इस युग में मनुष्य अपने विकास के चरम लक्ष्य की ओर अग्रसर रहता है । विकसित एवं सुव्यवस्थित अर्थव्यवस्था तथा प्रौद्योगिक विकास इस युग की उल्लेखनीय विशेषता मानी जाती है ।'
उपर्युक्त दो युगों-कबीला युग तथा जनसमूह युग में मानव सभ्यता केवल मात्र भोजन एकत्र करने के लिए ही अपनी शक्ति का प्रयोग कर पाती थी। साहित्य निर्माण के लिये न तो उसके पास समय ही बचता था और न ही इसके लिये उपयुक्त वातावरण ही था। केवल नृत्य गीतादि द्वारा वह साहित्य की आवश्यकता की पूर्ति कर लेता था। सामन्त-युग में आकर मानव समाज भोजन की समस्या को सुलझा चुका था। अब उसके पास मनोरञ्जन के लिए भी पर्याप्त समय था। इस युग में मुख्यत: धार्मिक साहित्य का निर्माण हुआ । भारतीय समाज के सामन्तवादी युग का प्रारम्भ वैदिक काल से माना जाता है। उत्तर वैदिक काल पर्यन्त पहुंचते हुये भारतीय समाज कृषि एवं पशुपालन के माध्यम से आर्थिक कठिनाइयों पर भी विजय प्राप्त कर चुका था। इसी युग में महाकाव्यों की पृष्ठभूमि का निर्माण भी होने लगा था। ऋग्वेद की इन्द्र विषयक शौर्य पूर्ण गाथायें तथा दान स्तुतियां, अथर्ववेद के कुन्ताप मन्त्र एवं शतपथ ब्राह्मण के 'पारिप्लव' आख्यान महाकाव्यों के अंकुर बन चुके थे । सामन्त युग की भी विकास की दृष्टि से तीन अवस्थायें मानी जाती हैं---प्रारम्भिक काल, मध्यकाल तथा उत्तर काल । इत तीनों कालों की अवधि वैदिक काल से लेकर १९वीं शती तक मानी जाती है।४ जैसाकि पहले कहा जा चुका है कि वैदिक काल पूर्व सामन्त युग है । इसमें महाकाव्यों की पृष्ठभूमि का निर्माण हुमा तदनन्तर लगभग ईस्वी पूर्व की पांचवीं छठी शताब्दी से प्रारम्भ होने वाले मध्य सामन्त युग में रामायण एवं महाभारत नामक विकसनशील महाकाव्य निर्मित हुए। उत्तर सामन्त युग नामक तीसरे काल में उत्कृष्ट अलंकृत महाकाव्यों की रचना प्रारम्भ होने लगी। इस काल को भी समय की दृष्टि से दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। पूर्वकालीन भाग में निर्मित महाकाव्य काव्य की दृष्टि से सर्वोत्तम थे। इनमें से रघुवंश, कुमारसम्भव, किरात आदि महाकाव्यों के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । इस प्रकार मानव समाज के विकास की चार
१. विशेष द्रष्टव्य-केशवराव मुसलगांवकर, संस्कृत महाकाव्य की परम्परा,
पृ० ६२ २. वही, पृ० ६३ ३. Keith, A.B., A History of Sanskrit Literature, London, 1941,
p. 41; Winternitz, M., History of Indian Literature, Vol. I,
part I, Calcutta, 1959, p. 130 ४. मुसलगांवकर, संस्कृत महाकाव्य की परम्परा, पृ० ६३