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युग-मीमांसा
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नौकरों और छोटे दुकानदारों की दशा गुलामों से बहुत भिन्न नहीं थी । मजदूरों को बहुत कम वेतन दिया जाता था, उनसे बेगार ली जाती थी । "
ऐसी ही स्थिति लगभग कृषकों की थी । अधिकांश कृषक मजदूरों के समान ही सोना पैदा करके मिट्टी पर गुजर करने वाले थे ।
मुख्यतः समाज के तीन ही वर्ग थे और उन तीनों के बीच में कोई स्पष्ट भेदक रेखा नहीं खींची जा सकती थी । यह अवश्य देखने में आता है कि प्रथम और तृतीय वर्ग में सिर-पग का अन्तर था, द्वितीय वर्ग उन दोनों से सटा हुआ था ।
आलोच्य प्रबन्धकाव्य और समाज
उपर्युक्त परिस्थितियों पर दृष्टिपात करने से उस युग के समाज का एक सामान्य चित्र सामने आ जाता है जो इतिहास से पुष्ट है । प्रबन्धकाव्यों से भी यही सिद्ध है कि शासक वर्ग के साथ धनी और वैभव सम्पन्न वर्ग विलास की मदिरा में डूबा हुआ था । नारी में आमूलचूल आसक्त इस वर्ग के लोग अपनापन भूल गये थे । वे अनात्म पदार्थों में आसक्त और भाँति-भाँति के रास रंग में मस्त थे। किसी सुन्दरी के सौन्दर्य से रीझकर
१.
२.
३.
देखिए - सत्यकेतु विद्यालकार: भारतीय संस्कृति और उसका इतिहास, पृष्ठ ५५१ ।
अरे नर मूरख तू भामिनी सो कहा भूल्यो,
विष की सी बेल काहू दगा को बताई है । अनेक दुख, सुपने न आई है ।
सेवत ही याहि नैकु पावत
सुख की रात कहूँ
नाहक विराने तांई अपना कर
-शत अष्टोत्तरी, पद्य ७६, पृष्ठ २६ । मानता है,
जानता तू है कि नाही अंत मुझे मरना
केतेक जीवने पर ऐसे फैल करता है, सुपने से सुख में तेरा पूरा परना है ।
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