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युग-मीमांसा
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न्यायिक शक्तियाँ और न्यायिक व्यवस्था राजा के हाथ में होती थी । किसी विशेष कष्ट या समस्या को लेकर प्रजा में से चुने हुए पंच राजा के पास जाते थे, किन्तु दरबार में पहुंच कर राजा के भय के कारण उनकी वाणी अवरुद्ध हो जाती थी और उनके नेत्र नीचे ही रहते थे, ऊपर न उठ पाते थे ।
सारांश यह कि उस समय राज्य-सिंहासन डाँवाडोल था । राज्य में होने वाले शीघ्र परिवर्तनों, अंतः कलह एवं बाह्य आक्रमणों से प्रजा भयाकुल थी । वह राजनीतिक अधिकारों से वंचित थी । उसका जीवन प्रवचना और विडम्बना से परिपूर्ण था ।
सामाजिक अवस्था
आलोच्य युगीन जन-जीवन राजनीतिक उथल-पुथल एवं प्रशासकीय शिथिलता के कारण नीरस, अशान्त और क्लान्त था । वह बाह्य आक्रमणों, भीतरी उपद्रवों तथा शासकों की पदलोलुपता और मदान्धता से क्षुब्ध, पीड़ित और विवश था । तत्कालीन समाज सामन्तवादी पद्धति पर आधृत था, जिसमें सम्राट् का शीर्ष स्थान था । उसके बाद उच्च वर्ग के अन्तर्गत राजा, अधिकारी और सामन्त थे जिन्हें समाज में विशेष सम्मान और अधिकार प्राप्त था । सम्पूर्ण देश में मनसबदार और सामन्तों का जाल फैला हुआ था, जो अपनी-अपनी सीमा में राजा थे । शाही दरबार सुख, समृद्धि, शिष्टता और सभ्यता का केन्द्र था, परन्तु उसके बाहर देश में अधिकांश स्थलों पर जीवन दुर्दशाग्रस्त, असन्तोषजनक, अतिदयनीय और घोर विपत्तिजनक
था
सीताचरित, पद्य ३६, पृष्ठ ४ ।
२. देखिए - जे० एस० हालेण्ड : द एम्पायर ऑफ ग्रेट मुगल, पृष्ठ ९३ ।
देखिए - बी० एन० लूनिया : इवोल्युशन ऑफ इण्डियन कलचर, पृष्ठ ४३८ ।
देखिए - ईश्वरीप्रसाद : मध्ययुग का संक्षिप्त इतिहास, पृष्ठ ४६६ ।
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