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3. दार्शनिक - दृष्टि
शरीर-संरक्षण के लिए आहार की उपादेयता का वर्णन करते हुए सांख्यदार्शनिक कहते हैं कि प्रकृति और पुरुष के संयोग से जगत् का विकास हुआ है । प्रकृति के तीन गुण माने गए हैं सत्व, रज तथा तम। प्रत्येक वस्तु में ये तीन गुण मौलिक रूप से पाए जाते हैं, परन्तु प्रत्येक वस्तु में किसी गुण की अधिकता, तो किसी गुण की न्यूनता भी होती है। तथा उसी के आधार पर उस वस्तु की कोटि निर्धारित होती है। इसी आधार पर भोज्य पदार्थ को भी तीन श्रेणियों में विभक्त किया जाता है- सात्विक, राजसी एवं तामसी । सामान्यतया; अन्न, फल आदि का सात्विक भोजन ग्रहण करने से मनुष्य की सात्विक प्रवृत्ति बढ़ती है, घी, मिष्ठान्न, पकवान आदि अति पौष्टिक भोजन ग्रहण करने से मनुष्य में राजसी - प्रवृत्ति बलवती होती है एवं मांस, मदिरा, बासी पदार्थ आदि तामसी - वस्तुओं को खाने से तामसीप्रवृत्ति जाग्रत होती है। स्पष्ट है कि शरीर में भी प्रकृति के तीनों गुण उपस्थित हैं और उनका संरक्षण विभिन्न प्रकार के आहार से ही संभव है, किन्तु मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह सात्विक आहार करे और तामसी - आहार का त्याग करे । राजसीआहार परिस्थिति के आधार पर थोड़ा ग्रहण किया जा सकता है, किन्तु अधिक नहीं । 4. देश और काल
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शरीर-संरक्षण के लिए देश एवं काल के अनुसार ही व्यक्ति का आहार निश्चित होता है, ऐसा न होने से आदमी के लिए जीवित रहना कठिन और कभी-कभी तो असंभव भी हो सकता है। यदि कोई उत्तरी अथवा दक्षिणी ध्रुव के आसपास रहता है और वहाँ पर वह गरम पदार्थों का सेवन न करे तो वह जिन्दा कैसे रह सकता है ? दूसरे, वहाँ के भोज्य पदार्थों में वही वस्तुएँ होंगी, जो वहाँ सुलभ हैं। यदि अकाल पड़ा हुआ है और अकालग्रस्त क्षेत्र का व्यक्ति कहे कि वह केवल अमुक वस्तु ही ग्रहण करेगा, अथवा जो कुछ भी वह खाएगा, अपने धर्म और नीति की सीमाओं के अन्दर रहकर खाएगा, ऐसी परिस्थिति में या तो उसे अपनी जान देनी पड़ेगी या फिर धार्मिक एवं नैतिक - सीमाओं का अतिक्रमण करना पड़ेगा ।
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