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ऐन्द्रिकज्ञान और विमर्शात्मकज्ञान भी संज्ञा के अन्तर्गत ही आते हैं, यही कारण है कि आचार्यों ने ओघ और धर्म को संज्ञा के रूप में ही स्वीकार किया है। इस प्रकार, हम यह कह सकते हैं कि जैनदर्शन में संज्ञा शब्द जीववृत्ति और विवेकवृत्ति-दोनों का ही परिचायक रहा है। वह यह बताता है कि प्राणी जो भी व्यवहार करता है, उसके पीछे कोई भी संज्ञा अवश्य रहती है । यद्यपि वासनात्मक और विवेकात्मक-संज्ञाएँ व्यवहार की प्रेरक रही हैं, फिर भी वासना की अपेक्षा विवेक को प्रधानता देने के उद्देश्य से संज्ञा विशेष महत्त्वपूर्ण मानी गई है। जैनदर्शन में इन संज्ञाओं को दो भागों में बांटा गया है। पहला – उदयजन्य, जो कर्म के उदय से प्राप्त होती हैं और दूसरी- क्षयोपशमजन्य, जो कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होती है।
उदयजन्य संज्ञाएँ मोहनीयकर्म के उदय से होती हैं, इसलिए वे संसार का कारण भी होती हैं, किन्तु ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय के क्षयोपशम से जो संज्ञाएँ उत्पन्न होती हैं, वे प्राणी के विवेकात्मक पक्ष पर विशेष बल देती हैं। विवेक-आधारित संज्ञाओं के तीन प्रकार माने गए हैं। 1. हेतुवादोपदेशिकी -संज्ञा, 2. दीर्घकालिक संज्ञा 3. दृष्टिवादोपदेशिकी - संज्ञा । '
1. हेतुवादोपदेशिकी - संज्ञा वह संज्ञा, जिसमें वर्त्तमान के संदर्भ में ही ज्ञान, चिंतन और उपयोग हो और दुःख - मुक्ति का एवं सुख - प्राप्ति का उद्देश्य हो उसे हेतुवादोपदेशिकी-संज्ञा कहते हैं, जैसे गर्मी हो, तो छाया में जाना, सर्दी हो, तो धूप में जाना, भूख लगने पर आहारादि के लिए प्रवृत्ति करना आदि ।
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2. दीर्घकालिक संज्ञा
वह संज्ञा, जिसमें भूत, वर्त्तमान एवं भविष्यकाल - तीनों कालों का विचार - चिन्तन होता है, उसे दीर्घकालिक - संज्ञा कहते हैं । मनोबलप्राण वाले समस्त जीवों में यह संज्ञा पाई जाती है। इसका दूसरा नाम संप्रसारण-संज्ञा भी है ।
4 दण्डक प्रकरण, गाथा - 33
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