Book Title: Jain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Pramuditashreeji
Publisher: Pramuditashreeji

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Page 595
________________ ममत्व वृत्ति का त्याग एवं समत्व वृत्ति का विकास कैसे संभव हो सकता है, इस दिशा में चिन्तन किया गया है। शोध-प्रबन्ध का षष्ठ अध्याय क्रोध - संज्ञा के विवेचन से सम्बन्धित है। क्रोध संज्ञा मानसिक मनोविकार तो है ही, किन्तु उत्तेजक आवेग भी है, जिसके उत्तेजित होते ही व्यक्ति भावाविष्ट हो जाता है। उसकी विचार क्षमता और तर्कशक्ति लगभग शिथिल हो जाती है । प्रस्तुत अध्याय में क्रोध के स्वरूप, लक्षण, कारण और उसके विभिन्न रूपों के बारे में चर्चा तो की ही गई है, साथ ही क्रोध - संज्ञा से होने वाले दुष्परिणामों को भी स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। आधुनिक मनोविज्ञान में क्रोध संवेग और आक्रामकता की मूलवृत्तियों पर प्रकाश डालते हुए क्रोध-संज्ञा पर विजय कैसे प्राप्त की जाये एवं जीवन में मानसिक शांति किस प्रकार स्थापित की जाये, इसकी भी चर्चा की गई है । 558 शोधप्रबंध का सप्तम अध्याय मान - संज्ञा के विवेचन से सम्बन्धित है। स्वयं को उच्च एवं दूसरों को निम्न समझना या अहंकार की मनोवृत्ति मानसंज्ञा है । सूत्रकृतांगसूत्र में कहा गया है "अभिमानी अहम् में चूर होकर दूसरों को परछाई के समान तुच्छ मानता है ।" मानसंज्ञा विनयभाव और मैत्रीभाव का हनन करने वाली है। अहंकार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरूषार्थ का घातक है एवं विवेक रूपी चक्षु को नष्ट करने वाला है। इस प्रकार प्रस्तुत शोधप्रबंन्ध के सप्तम अध्याय में मानसंज्ञा का स्वरूप, उसके भेद एवं उसके दुष्परिणामों की चर्चा की गई है। साथ ही मानसंज्ञा या अहंकारवृत्ति पर विजय किस प्रकार से प्राप्त की जाये यह बताने का प्रयास किया गया है। - Jain Education International शोधप्रबंध का अष्टम अध्याय माया - संज्ञा के विवेचन से सम्बन्धित है। माया संज्ञा से तात्पर्य कपटवृत्ति से है। मुख्यतः हृदय की वक्रता का नाम माया है, जैसे बंजर भूमि में बोया बीज निष्फल जाता है। मलिन चादर पर चढ़ाया केसरिया रंग व्यर्थ हो जाता है, नमक लगे बर्तन में दूध विकृत हो जाता है; ठीक वैसे ही मायावी का किया गया धर्म-कार्य भी सफल नहीं हो पाता है । प्रस्तुत शोध प्रबन्ध के अष्टम For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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