________________
शोध प्रबन्ध का अन्तिम सोलहवां अध्याय उपसंहार रूप है इसमें संज्ञा और संज्ञी में अन्तर, संज्ञा विवेकशीलता {Faculty of Reasoning} की चर्चा के साथ-साथ सभी अध्यायों के सारतत्त्व का उल्लेख किया गया है।
वस्तुतः हमारी चेतना पर धर्मसंज्ञा को छोड़कर संज्ञाओं का जो आधिपत्य है, उसे कैंसे तोड़े ? चित्त को वासनामुक्त कैसे करें तथा संज्ञाओं के संस्कारों को कैसे मिटाएँ – आज यह साधना के क्षेत्र का भी ज्वलंत प्रश्न है, इस प्रश्न के निराकरण के सम्यक् उपाय की खोज ही प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध का मुख्य लक्ष्य रहा है।
आयुर्वेद का सिद्धान्त है कि बीमारी एक होती है, परन्तु भेद के कारण उसके अनेक रूप हो जाते हैं, जैसे दर्द दर्द है पर स्थानभेद के कारण सिर का दर्द, घुटने का दर्द, छाती का दर्द, कंधे का दर्द, गर्दन का दर्द आदि उसके अनेक रूप हो जाते हैं, इसी प्रकार संज्ञा मूलतः दैहिक एवं चैतसिक पर्याय रूप एक ही है, मात्र स्वरूप भेद के आधार पर उसके अनेक प्रकार हो जाते हैं।
आहार के प्रति जो इच्छा और तद्जन्य जो आसक्ति होती है, वह आहारसंज्ञा कहलाती है, चेतना में जब भय का संवेग उत्पन्न होता है और तदजन्य जो दैहिक प्रतिक्रियाएं होती हैं तो वे भय संज्ञा कहलाती है तथा परिग्रह या संचयन के प्रति जो आसक्ति या मूर्छा का भाव उत्पन्न होता है, तो वह परिग्रहसंज्ञा कहलाती है। वैसे देखा जाए तो संज्ञा पर के प्रति रागात्मक भाव ही है, परन्तु उसकी जिन-जिन दैहिक प्रतिक्रियाओं के रूप में अभिव्यक्ति होती है, वे भिन्न-भिन्न संज्ञाओं का रूप ले लेती हैं।
चेतना किसी समय किसी एक विषय पर सघन होती है और किसी एक विषय पर विरल होती है। नारकीय जीवों में भय-संज्ञा, देवताओं में परिग्रह-संज्ञा, तिर्यंच में आहार-संज्ञा और मनुष्य में मैथुन-संज्ञा प्रबल होती है। यह विभाजन प्रधानता की दृष्टि से किया जाता है। वैसे तो सभी प्राणीय जीवों में आहार, भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञाएँ होती ही हैं, किन्तु सबका एक समय में प्रबल होना आवश्यक नहीं है, किन्तु धर्म-संज्ञा को छोड़कर शेष सभी संज्ञाओं में राग-भाव या
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org