Book Title: Jain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Pramuditashreeji
Publisher: Pramuditashreeji

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Page 598
________________ 561 जीवन में क्या उपादेयता है, इस बात को समझाने का भी प्रयास किया गया है। धर्म संज्ञा ही मोक्ष का सोपान किस रूप में है उसे भी स्पष्ट किया है। प्रस्तुत शोध-प्रबंध के तेरहवें अध्याय में हमने मोहसंज्ञा, शोकसंज्ञा और विचिकित्सासंज्ञा की चर्चा की है। यहाँ मोह का अर्थ सांसारिक पदार्थ के प्रति ममत्व की वृत्ति है, मोह पर में स्व का आरोपण है और इसलिए वह मोक्ष में बाधक है। प्रस्तुत अध्याय में मोहसंज्ञा की विवेचना करते हुए यह भी बताने का प्रयास किया है कि मोह पर विजय कैसे प्राप्त की जाये। इसी प्रकार, इस अध्याय में शोकसंज्ञा की चर्चा की गई और उसे आर्त्तध्यान का ही रूप बताया गया है। इस शोक के साथ यह भी स्पष्ट किया गया है कि इसके क्या दुष्परिणाम होते हैं और उस पर विजय कैसे प्राप्त की जा सकती है? इस प्रकार, इस अध्याय में विचिकित्सा संज्ञा अर्थात् घृणा की वृत्ति की चर्चा की गई है और यह बताया गया है कि यह वृत्ति किसके प्रति आवश्यक है और किसके प्रति अनावश्यक है। मुख्य रूप से हमारा प्रतिपाद्य यह है कि जहाँ से राग़ का जन्म होता है, वहाँ जुगुप्सा साधना का आवश्यक अंग है और जहाँ द्वेष का जन्म होता है, वहाँ जुगुप्सा अनावश्यक है। वस्तुतः जुगुप्सा की वृत्ति हमें राग और द्वेष से मुक्ति दिलाती है और इस प्रकार वह हमारे आध्यात्मिक विकास में सहायक बनती है। इस शोध प्रबन्ध का चौदहवां अध्याय जैन धर्म की संज्ञाओं की अवधारणा का बौद्धधर्म की चैतसिकों की अवधारणा से तुलना से सम्बन्धित है। इसमें बौद्ध दर्शन के बावन चैत्तसिकों के स्वरूप आदि को स्पष्ट करके उनकी जैन दर्शन की संज्ञाओं के साथ तुलना की गई है। शोध प्रबन्ध के पंद्रहवें अध्याय में जैन दर्शन की संज्ञा की अवधारणा और मनोवैज्ञानिक मैकड्यूगल की मूलवृत्ति की अवधारणा का तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत किया गया है और उनमें रही हुई समानता और भिन्नता को स्पष्ट किया गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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