Book Title: Jain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Pramuditashreeji
Publisher: Pramuditashreeji

Previous | Next

Page 594
________________ 557 है। वस्तुतः, मैथुन संज्ञा मनुष्य की पाशविक प्रवृत्ति की परिचायक है। इस पर विजय पाने हेतु जैन दर्शन में ब्रह्मचर्य की साधना को मुक्ति का सोपान बताया गया है। यह बात ठीक है कि मैथुन संज्ञा के बिना संसार नहीं चल सकता। इसीलिए इसे पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता, परन्तु इस सम्बन्ध में भी विवेक अतिआवश्यक है। यदि कामवासनाओं पर विवेक की लगाम न लगाई जाये तो सम्पूर्ण समाज व्यवस्था खतरे में पड़ सकती है। प्रस्तुत चतुर्थ अध्याय में हमने कामवासना सम्बन्धी विकारों को विवेक की तराजू में तोलने का प्रयास किया है, साथ ही कामवासना के जय की प्रक्रिया और ब्रह्मचर्य की साधना के महत्त्व को भी स्पष्ट करने का प्रयास किया है तथा यह दिखाने का प्रयास किया है कि कामवासना का निरसन कैसे संभव है। ___ शोधप्रबंध का पंचम अध्याय परिग्रह-संज्ञा के विवेचन से सम्बन्धित है। लोभ मोहनीय कर्म के उदय से सचित्त व अचित्त द्रव्य का संचय करने की वृत्ति परिग्रह संज्ञा है। प्राणी की संचयात्मक वृत्ति के कारण इसकी उत्पत्ति के चार प्रकार बताए 1. संचय-करने की वृत्ति से . 2. लोभ-मोहनीय कर्म के उदय से 3. अर्थ सम्बन्धी कथा सुनने से 4. परिग्रह सम्बन्धी विचार करने से तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है कि 'मूर्छा परिग्रहः है। वस्तुतः संचय में गाढ़ आसक्ति परिग्रह संज्ञा है। परिग्रह दो प्रकार का बताया गया है - 1. बाह्य 2. आभ्यन्तर। प्रस्तुत शोध में परिग्रह के स्वरूप एवं लक्षण की चर्चा तो की ही गई है, साथ ही संचय-वृत्ति से होने वाले दुष्परिणामों को भी दर्शाया गया है। समाज में संचय वृत्ति को लेकर जो आपा-धापी या अराजकता फैली हुई है, उसका निराकरण कैसे सम्भव है, यह दिखाने का प्रयास किया गया है, साथ ही महात्मा गांधी का ट्रस्टीशिप का सिद्धान्त कितना सार्थक हो सकता है और मानव जीवन में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609