Book Title: Jain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Pramuditashreeji
Publisher: Pramuditashreeji

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Page 585
________________ 548 3. दृष्टिवादोपदेशिकी-संज्ञा - जो जीव सम्यग्दर्शन के परिणामस्वरूप आत्मा का हित-अहित सोचते हैं, अविवेक, अनिष्ट, अकरणीय, अभक्ष्य का त्याग करके इष्ट, करणीय एवं भक्ष्य को स्वीकार करते हैं, उन जीवों की संज्ञा दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा होती है। पंचेन्द्रिय गर्भज मनुष्यों में ही ये संज्ञाएँ होती हैं। इस प्रकार, मोहनीय-कर्मप्रकृति के उदय से होने वाली संज्ञाएँ, जो उदयजन्य संज्ञा हैं, इसका वर्गीकरण भी अनेक प्रकार से किया गया है। संज्ञाओं का जो चतुर्विध, दशविध और षोडशविध वर्गीकरण पाया जाता है, उनमें चतुर्विध के अन्तर्गत आने वाली चार संज्ञाएँ (आहार, भय, मैथुन और परिग्रह), संज्ञाओं के दशविध वर्गीकरण में नौ संज्ञाएँ (आहार आदि चार तथा क्रोध, मान, माया, लोभ, लोक) वासनारूप और ओघ विवेकरूप संज्ञा हैं। इसी प्रकार संज्ञाओं के षोडषविध वर्गीकरण में- आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, लोक, सुख, दुःख, मोह, शोक, विचिकित्सा -ये चौदह संज्ञाएँ वासनात्मक-पक्ष का प्रतिनिधित्व करती हैं। इसमें धर्म और ओघ विवेकात्मक-पक्ष की परिचायक हैं। ये दोनों संज्ञाएँ किसी-न-किसी रूप में दर्शनावरण और ज्ञानावरण के क्षयोपशम से होती हैं। संक्षेप में, वासनात्मक-संज्ञाएँ भववृद्धि का कारण हैं और विवेकात्मक-संज्ञाएँ संसार से विमुक्ति का कारण है। संज्ञाओं के स्वरूप एवं उनके वासनात्मक एवं विवेकात्मक पक्ष को लेकर जो प्रमुख चर्चा हमने पूर्व में की है, उसका सार निम्न है - — जैनदर्शन में आहार, भय, मैथुन, और परिग्रह नामक जिन चार संज्ञाओं का विवेचन मिलता है, वे संज्ञाएँ मूलतः व्यक्ति के वासनात्मक-जीवन की परिचायक हैं।' मनोविज्ञान की भाषा में हम इन्हें मूलप्रवृत्ति भी कह सकते हैं, क्योंकि इनका आधार जैविक है। शरीरधारी सभी प्राणियों में इनका अस्तित्व माना गया है। जब इन चार संज्ञाओं में क्रोध, मान, माया और लोभ -इन चार संज्ञाओं को जोड़ दिया 5 उपासकाध्ययनसूत्र, गाथा- 56-56 6 व्यक्तित्व का मनोविज्ञान, अरूणकुमार सिंह, आशीष संह, पृ. 191 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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