Book Title: Jain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Pramuditashreeji
Publisher: Pramuditashreeji

Previous | Next

Page 589
________________ 552 सूत्रकृतांगसूत्र में कहा गया है कि संज्ञा अर्थात् अपनी विवेकशक्ति को क्रोध, मान, माया, लोभ आदि चेतना के वासनात्मक पक्ष में निवेशित न करें। 13 यहाँ वासना पर विवेक के अंकुश की बात स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। संज्ञा और संज्ञी में अंतर - जैनदर्शन में संज्ञा के वासनात्मक पक्ष को संज्ञा और विवेकात्मक पक्ष को संज्ञी के रूप में विवेचित किया गया है। जैनदर्शन में संज्ञा और संज्ञी -ये दो शब्द स्पष्ट रूप से प्रयुक्त हुए हैं। सामान्यतया, संज्ञी वह कहा जाता है जिसमें विवेकात्मक मन हो। इसी विवेक क्षमता के आधार पर जैन आचार्यों ने संज्ञा और संज्ञी में अंतर किया है। जैन आचार्यों ने यह माना है कि संज्ञी प्राणी ही मोक्ष का अधिकारी होता है, जबकि मात्र संज्ञा होने पर किसी को मोक्ष का अधिकार प्राप्त हो -यह आवश्यक नहीं है। श्वेताम्बर परंपरा में आहार संज्ञा को छोड़कर शेष सभी संज्ञाओं की उपस्थिति में मोक्ष का अभाव माना है। दिगंबर परम्परा तो आहार संज्ञा की उपस्थिति में भी मोक्ष की संभावना स्वीकार नहीं करती है। धर्म और ओघ संज्ञा को जब हम विवेकात्मक रूप से स्वीकार करते हैं तब वह मोक्ष का साधन बनती है। लेकिन मोक्ष अवस्था तो निश्चय में संज्ञा और संज्ञी से भिन्न है। मोक्ष दशा में न संज्ञा रहती है और न संज्ञा का भाव रहता है।15 अणासिता नाम महासियाला, पगमिणो तत्थ सयायकोवा। खज्जति तत्थ बहुकूरकम्मा, अदूरया संकलियाहिं बद्धा ।। 20 ।। सदाजला नाम नदी भिदुग्गा, पविज्जला लोहविलीणतत्ता। जंसी भिदुग्गंसि पवज्जमाणा, एगाइयाऽणुक्कमणं करेंति।। 21 || एआई फासाइं फुसति बालं, निरंतरं तत्थ चिरद्वितीयं । ण हम्ममाणस्स तु होति ताणं, एगो सयं पच्चणुहोति दुक्खं ।। 22 ।। -सूत्रकृतांगसूत्र 2/5/20,21,22 संज्ञिनः समनस्काः । - तत्त्वार्थसूत्र, 2/25 प्रज्ञापनासूत्र, सूत्र 1965-1973 . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609